याद हैं स्कूल के दिन वो सुहाने
पीटर्स और पैटरिक्स के अलबेले ज़माने
दो पडोसी , अपनी अपनी चारदीवारी में सिमटे
फिर भी एक दूसरे की हर बात की खबर रखते
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वो क्लास में सर की कुर्सी पर रबर की छिपकली रखना
फिर सजा के तौर पर पूरी क्लास का एकता से खड़े रहना
वो स्कूल बेल पर चुपके से च्विंगम चिपकाना
और छुट्टी से दस मिनट पहले ही घंटी का बज जाना
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वो इंटरवल में भेल पूरी की लंबी - लंबी लाईने
और एक दूसरे के टिफ़िन को अधिकार से खाना
वो खुस्के के चिप्स और आइस क्रीम का कार्नर
और कार्नर के अड्डे से सबकी गतिविधियों पे नज़र रखना
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वो स्पोर्ट्स की तैयारी में जी जान से जुटी लड़कियां
कभी मार्च पास्ट , योगा और शॉर्ट्स में जिमनास्टिक्स
वो पीटर्स के लड़कों का बाउंड्री वाल पे चढ़ना
और पेड़ों में छुपकर हमारे ग्राउंड में झांकना
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वो पीटर्स और पैटरिक्स का सांझा जालीदार दरवाज़ा
और उसमे से आर पार होती हुयी चिठ्ठियाँ
वो लैला और मजनुओं के किस्सों का राज़दार
दो स्कूलों के बीच की सीमा रेखा का जंगला
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वो बायोलॉजी एक्सपेरिमेंट का तुक्का लगाना
और माली से तुड़वाये गए हुए फूलों का जानना
वो केमिस्ट्री लैब में कुछ ना समझ आना
और चख - चख कर स्पेसिमेन का नाम बताना
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वो पी टी सर की इंग्लिश , तो मिस पाई की कैट वाक
और नागर सर का पेट तो मिस रस्तोगी का वेट
हर टीचर के जुदा थे अंदाज़ अपने अपने
और उन पर होती चर्चा, वो मसालेदार टिप्पड़ियां
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वो ग्राउंड के पीछे बनी हुयी कब्रे
और घूमते हुए भूतों के डरावने किस्से
वो छेड़ना , वो सताना , वो रूठना- मनाना
और फेयरवेल के बाद बिछडते हुए रोना
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कैसे थे स्कूल के दिन वो सुहाने
काश फिर से लौट आये वही पुराने ज़माने