Wednesday, December 26, 2018

विरोधाभास




किसी विवाह का निमंत्रण पत्र देखकर
कभी जो मन आनंदित हुआ करता था
वही मुस्कान आज सहमी - सहमी 
पल भर मैं क्षीण क्यों हो जाती है
आशाओं और सपनो की जगह
आशंका और अविश्वास ने कैसे ले ली
क्या रिश्तों की गर्माहट
अब हाथ जलाने लगी है
या उम्र भर साथ निभाने वाले सम्बन्ध
अब दौलत के तराजू मैं तुलकर
बिना गारंटी कार्ड के आने लगे हैं
अपनों की जरूरत होते हुए भी
हुम रिश्तों से दूर भागने क्यों लगे हैं
आखिर ये विरोधाभास क्यों है ?
.
यदा कदा होने वाली शोक सभाएँ
कभी जो मन को उद्वेलित कर देती थी
आज इश्तिहारों की तरह अखबारों के
कई पन्नो पर छपने लगी हैं
मृत्यु तो अटल और शास्वत सत्य है
पर ये इतनी सस्ती और आम कैसे हो गयी
क्या किसी जीवन का अंत
अब हमे विचलित नहीं करता
या गूंगे बहरे बने, मुंह पे ताला लगाए
मतलब परस्ती के नाच मैं मगन
खून को पानी मैं बदलते जा रहे हैं
मौत की आवा जाही को कोसते हुए भी
अपनी आत्मा को खुद मारने क्यों लगे हैं ?
आखिर ये विरोधाभास क्यों है ?
.
बीते ज़माने की अमूल्य यादे
कभी जो मन को गुदगुदाया करती थीं
आज साबुन के बुलबलों की तरह
हवा मैं विलीन क्यों हो जाती हैं
वो चूल्हे की रोटी और अम्मा का दुलार
बस एल्बम के पन्नो में दुबक कर क्यों रह गया
क्या चाँद पर पहुँचने की ललक
हमे धरती से दूर ले जा रही है
या आधुनिकता का चश्मा चढ़ाये
संस्कृति को बांदी बना
हम भौतिकतावाद के नशे में डूबते जा रहे हैं
जड़ों की अहमियत को जानते हुए भी
कुल्हाड़ी से अपने ही पैर काटने क्यों लगे हैं ?
आखिर ये विरोधाभास क्यों है ?

Saturday, December 15, 2018

टूटे पत्ते की सार्थकता


अलग हो चुके कोई पत्ता जब
किसी डाली से टूट कर 
नहीं जुड़ सकता फिर दुबारा
किसी शाख या किसी दरख़्त पर
उड़ता फिरता है बदहवास,कभी
बिना किसी ठौर-ठिकाने के
हवा के थपेड़ो संग ,बेजान
किसी भी सूरत -ए - हाल
कराह उठता है कभी कुचल कर
उन्ही पैरों तले रुंद कर
जिनके सर कभी छत्र बना था
सूरज पर सीना तान
समय का चक्र भी गज़ब अनोखा
कब ठहरा है वह एक समान
जो ऊपर है वो नीचे होगा
कर निचले वाले का उत्थान
सृष्टि का जो नियम बना है
कौन उसके जा सके विपरीत
नहीं व्यर्थ यहाँ है कुछ भी
सूखे पत्ते का तब, क्या है काम ?
ढूंढने होंगे फिर नए आयाम
सूखे पत्ते को अपने लिए
कोई उपयोगिता, कोई रूपांतरण
जो सार्थक करे, शेष जीवनकाल
क्या बिछ कर धरा पर रोक ले ?
उसके कलेजे की नमी
ना सूख पाएगी धरती की छाती
प्रचंड सूरज की तपिश से
या बन जाए सतह, बिंध कर
एक नए नीड़ की नींव में
किसी पंछी के बसेरे को
थाम कर अपने आगोश मैं
और कुछ नहीं, तो हो रेशा -रेशा
खाद बन, मिल जाए माटी मैं
जिसमे से रूप बदलकर फिर फूटेगी
एक नयी कोपल, नवजीवन के साथ !!