रेलगाड़ी की दो पटरियों को देखकर
अचानक एक ख्याल मन में कौंधा
कि क्या हम भी इन्ही दो पटरियों की तरह नहीं हैं
ज़िन्दगी के रास्तों पर निरंतर चलते हुए
ना ज्यादा दूर, ना और नज़दीक
बस एक निश्चित दूरी को बनाये हुए
चलते जा रहे हों दिन रात
नए मोड़ों से गुज़रते
मंज़िल से बेखबर
किसी पड़ाव पर ज़रा थमते
फिर अनजानी राहों पर आगे बढ़ते
ग़म ये नहीं की रास्ता क्या है
ना फ़िक्र ये की मंज़िल क्या होगी
ख़ुशी क्या ये कम नहीं है कि
सफर में हम साथ तो हैं। ......
No comments:
Post a Comment