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हूक अब भी उठती है
पर कंठ से शब्द नहीं फूटते
बस मन के अंदर उमड़ घुमड़ कर
भरे भरे बादल बिन बरसे
भाप से सीधे बर्फ हो जाते हैं।
शीतलता ठंडक देती है ,
पर बिना पानी के प्यास नहीं बुझती।
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पीर अब भी होती है
पर आँख नम नहीं होती
कब सिमट गया वो उद्धण्ड़ झरना
जो दिल की दीवारों से हिलोरे लेकर
छलक छलक जाया करता था।
मर्यादा संयम देती है ,
पर बिना बहाव के मंज़िल नहीं मिलती।
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विचार अब भी सुलगते है
पर आंच नहीं लगती
बुझी बुझी सी राख में
दबी चिंगारी को भड़काने
अब आंधी नहीं आया करती।
शून्यता शान्ति देती है ,
पर बिना हवा के सांस नहीं चलती।
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