विज्ञान की तरक्की बड़ी होती गयी
और दुनिया छोटी होती गयी
अचानक वह बचपन की सखियों का झुण्ड
फिर से सामने आया तो जैसे
बाल सुलभ मंन प्रफुल्लित हो उठा
और यादें ताज़ा हो चिहुक उठीं
पहली तस्वीर बचपन की जिसमे
एक दुसरे से ज्यादा नज़र आने की होड़ मैं
एक दुसरे पर लदी सखियाँ
और कोने मैं चुपचाप खड़ी मैं
फिर से उस एहसास को ज़िंदा कर गयी
की उस दुनिया मैं मेरी जगह नहीं थी
चमचमाती गाड़ियों से इठलाती आती लड़कियां
और साथ मैं बैग लिए सर झुकाये ड्राइवर
वहीँ पिताजी की पुरानी पतलून से बने
बस्ते को थामे सकुचाती आती मैं
चिड़िया सी चहकती , हंसी ठिठोली करती सखियाँ
और चुप चुप सब देखती खामोश मैं
बचपन के साथ लौट आई फिर कुछ यादें
कुछ किस्से, कुछ लम्हे और संकुचित तजुर्बे
कल और आज के वक्त को जोड़ती
एक और नयी तस्वीर और वही सारी सखियाँ
अमीर घरों की बहुएं ,कुछ डॉक्टर, कुछ इंजीनियर
सफलता और जीत के परचम को छूती
आधुनिक और आला दर्जे के साजो सामान से सुसज्जित
चेहरे पर उसी गर्व के साथ मुस्कुराती
पर इस तस्वीर मैं नहीं हूँ मैं
होना मेरा जरूरी भी नहीं
जरूरी है ये बात , ये एहसास
की उस दुनिया मैं मेरी जगह
कल भी नहीं थी
और आज भी नहीं है
1 comment:
bahut achche
Post a Comment