Tuesday, November 11, 2014

जगह




विज्ञान  की  तरक्की  बड़ी  होती  गयी 
और  दुनिया  छोटी होती गयी 
अचानक  वह  बचपन की  सखियों  का झुण्ड 
फिर  से सामने   आया तो  जैसे 
बाल  सुलभ  मंन  प्रफुल्लित  हो  उठा 
और  यादें ताज़ा  हो  चिहुक  उठीं 

पहली  तस्वीर बचपन की जिसमे 
एक दुसरे  से ज्यादा नज़र आने की   होड़ मैं
एक दुसरे  पर लदी   सखियाँ 
और  कोने मैं   चुपचाप खड़ी  मैं 
फिर  से  उस एहसास को ज़िंदा कर गयी 
की उस  दुनिया मैं मेरी  जगह  नहीं थी 


 चमचमाती गाड़ियों   से इठलाती  आती  लड़कियां 
और साथ  मैं बैग लिए  सर  झुकाये ड्राइवर 
वहीँ  पिताजी  की  पुरानी पतलून   से  बने  
बस्ते को थामे सकुचाती आती  मैं 
चिड़िया सी  चहकती , हंसी ठिठोली  करती सखियाँ 
और  चुप चुप सब देखती खामोश मैं 


बचपन  के साथ लौट   आई फिर  कुछ  यादें 
कुछ किस्से, कुछ  लम्हे और  संकुचित  तजुर्बे 


कल   और आज  के  वक्त को  जोड़ती 
एक  और नयी  तस्वीर  और वही सारी  सखियाँ  
अमीर घरों  की बहुएं ,कुछ  डॉक्टर, कुछ इंजीनियर
सफलता  और  जीत  के परचम को छूती 
आधुनिक  और आला  दर्जे  के साजो सामान  से सुसज्जित 
 चेहरे पर उसी गर्व  के साथ  मुस्कुराती 


पर  इस  तस्वीर मैं  नहीं  हूँ मैं 
होना मेरा जरूरी  भी नहीं 
जरूरी  है ये बात  , ये एहसास 
की   उस दुनिया  मैं मेरी जगह 
कल  भी  नहीं थी 
और आज  भी  नहीं  है 

1 comment:

Avni punj said...

bahut achche