Tuesday, April 16, 2019

वो दिन


जाने कहाँ गए वो दिन
जब संयुक्त परिवार मैं सब मिलकर रहा करते थे 
कभी देवर भाभी से चुहल - मनुहार किया करते थे
कोई चाचा , कोई बुआ, कोई बाबा दादी हुआ करते थे
ख़त्म हो चले वो सारे रिश्ते जो कभी अपने हुआ करते थे
एक थाली मैं बैठ कर खाते एक रोटी के चार टुकड़े हुआ करते थे
तब घर छोटे और दिल बड़े हुआ करते थे
जाने कहाँ गए वो दिन
जब गलियों और मोहल्लों मैं जमघट हुआ करते थे
कोई त्यौहार कोई हो काम सब सांझे हुआ करते थे
एक दुसरे के सुख दुःख में पडोसी भी भागी हुआ करते थे
लुप्त हो चला वो चाल चलन जो दीवारों को जोड़े रखता था
एक घर से दूसरे घर तक छतों छतों जा सकते थे
तब दिलों के साथ साथ घरों के दरवाजे भी खुले रहा करते थे
जाने कहाँ गए वो दिन
जब एक दोने की बर्फी मैं सब मुँह मीठा कर लेते थे
एक का बल्ला, एक की गेंद, कुछ तेरा मेरा नहीं होता था
एक दोस्त की बहन सबकी ही बहन हुआ करती थी
बिखर गए वो संगी साथी जो बचपन में खेला करते थे
एक दूजे की खातिर जो, ख़ुशी से झुक जाया करते थे
तब रिश्ते बड़े और नाक छोटी हुआ करती थी
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मंजरी - 16th april

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