बूढी हो चुकी हूँ मैं अब
हर कोई अपनी - अपनी दिनचर्या
मैं व्यस्त और बदहवास सा
भागा चला जा रहा है
पर मुझे चार कदम
चलने के लिए भी
कोई बहाना नहीं मिलता
फिर भी हर संध्या को
आकर बैठ जाती हूँ
घर के सामने बने
खाली बागीचे के कोने मैं पड़ी
अकेली बेंच पर
कोई आता नहीं यहाँ अब
बच्चों को फूल पत्तो से ज्यादा
मशीनी उपकरणों से प्यार है
युगल जोड़ों को झुरमुट मैं
सपने बुनने से ज्यादा
भीड़ मैं खुद को तलाशने
की प्यास है
कुछ देर आँख बंद करते ही
मन की ठेलागाड़ी पंख लगा
पीछे की ओर दौड़ पड़ी
सलोने बचपन के अल्हड
से किस्से और उनमे छुपी
खट्टी - मीठी यादें
वो तितलियों के पंखों मैं सिमटी
रंगीन कलाकृतियाँ
पेड़ों के सायों मैं छुपना - छुपाना
वो सहेलियों संग बेफिजूल सी बातों
पर घंटो चहचहाना
वो पेड़ों पे पड़ते सावन के झूले
और हाथों से उडती मेहँदी की खुशबू
वो नानी के किस्से और दादी की झिडकी
आईने मैं झांकते अपने ही अक्स मैं
अनायास ही किसी अजनबी के
साए की जुम्बिश
वो सिन्दूरी सपनो से महकी सी सासें
और पल भर मैं जुड़ते सदियों के नाते
सब कुछ एक तस्वीर की तरह स्थिर
जैसे जादू की नगरी के सोते हुए लम्हे
बस छूने से सजीव हो उठेंगे
फिर से वही खिलखिलाते पल
पर समय की काली चादर तले
सब ढँका हुआ है
और मैं इस गर्द भरी मटमैली चादर
पर उँगलियों से लकीरें खींचती
इस उम्मीद मैं की जाग उठे
कोई सोती कहानी
किसी रेखा मैं उभरकर
बस चला आ रहा है ये सिलसिला
मेरे और समय के बीच
मैं हर रोज़ उकेरती
गर्द पर यादों की लकीरें
और हर रोज़ धूमिल करती
समय की उडती रेत उन्हें
बरसों से चल रही इस जुगलबंदी
के साथी मैं और समय की गर्द
पार हार कहाँ मानी है हमने
चलो कल फिर आउंगी इसी जगह
कुछ नयी लकीरें खींचने
जिनसे झांकेंगी यादों की परछाईयाँ
आँखें खोल कर बाहर आई
अपने अन्दर की दुनिया से
लौट पड़ी फिर समय से
कल आने का वादा करके
अपने उसी पत्थर के परकोटे मैं
जिसकी दीवार पर टंगे कैलेंडर मैं
लिखा है मेरी चलती साँसों का हिसाब
या तो मैं जीतूंगी या जीतेगी
ये समय की कालिख
पर उससे पहले लिख जाउंगी
हर याद की कोई अमिट कहानी
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