बगिया से चौखट तक फैली सजीली लता को
फिर उखाड़ कर सौंप दी माली ने दूजे हाथों मैं
और विदा हो गयी एक बेटी ब्याह कर
अपनों से दूर किसी अनजाने के संग
सींचा था जिसे अपने लहु की बूँद बूँद से
ममता की छाव् मैं पली बढ़ी
चल दी एक नए परिवेश मैं
सकुची , सहमी ,घबराई
जिस अंगने मैं सोलाह सावन बीते
एक - एक सेतु से बंधी आगे बढ़ी
कट गया अब हर बंधन
फिर से जुड़ने नए रिश्तों मैं
कौन जाने रच बस पाएगी
फिर से नयी जमीन पर
दूर अपनी मिट्टी से
फलेगी - फूलेगी और , या मुरझा जायेगी
पिता की लाडली , माँ की दुलारी
आँगन की रौनक और कुल का दर्प
आशीर्वाद और सीख के साथ उठी डोली
जिम्मेदारी और सपनो की कशमकश लिए
क्या जुड़ पायेंगे फिर से नए सेतु
क्या सर उठा झूम उठेगी देख ऊंचे गगन को
या धीरे धीरे कुम्हला जायेगी
बंजर ज़मीन के सूखे पत्थरों मैं
क्या पूरे होंगे उसके दुर्लभ स्वप्न
क्या हर्ष से महक उठेगी बगिया मैं
या झूल जायेगी निष्प्राण सी
एक एक कर झड़ते पीले पत्तों को मूक देखती
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