Wednesday, March 28, 2012

फूल




सब हँसते हैं सब मुस्कुराते हैं
होता कुछ है कुछ और ही दिखाते हैं

ये जो जुगनू से चेहरे यहाँ टिमटिमाते हैं
वो हक़ीक़त मैं कुछ और ही बताते हैं

शायद ये दिल के शोलों की चिंगारी हैं
जो आँखों के पानी से बुझाते हैं

दबे दबे से गुबार मैं ही सही

हवा के झोंको से फूलों से बिखर जाते हैं 

...........................मन..........................



 ये  मन ही तो है
जो कहता है मुझे
वो मेरे गालों को थपथपा कर जगाएं
फिर मीठी मुस्कान से मुझे उठाएं
जो मैं चाय की प्याली लिए आऊं
तो हौले से मेरे हाथों को सहलाएं

ये  मन ही तो है
जो कहता है मुझे
वो चुपके से आके कानो मैं कुछ कहें
फिर नज़रों ही नज़रों मैं इशारे करें
जो मैं शर्म से सर झुका लूं
तो बेबाक हो कुछ ठिठोली करें

ये  मन ही तो है
जो कहता है मुझे
वो अनायास ही अपने आगोश मैं भरें
फिर अधरों का रस-पान करें
जो मैं उनकी बाहों मैं कस्मसाउन
तो वो और पुरजोर चुम्बन करें

ये  मन ही तो है
जो कहता है मुझे
वो उनकी छुअन की तपिश से
फिर पिघले बदन का सोना
जो मैं उठकर समेटना चाहूँ
तो वो उसे शोला बना दें

ये  मन ही तो है
जो कहता है मुझे

~~~~~~~~~~ मैं ~~~~~~~~~~


हर पल के तिरस्कार से
पाषाण बनी तो
टूटने के विचार से
फिर जुड़ती रही मैं

अन्दर की ज्वाला से
धधकती रही तो
जलने के एहसास से
फिर बर्फ बनी में

आँखों की नमी से
बादल बनी तो
होठों की मुस्कान से
फिर बरसात बनी मैं

 रात की कलोंछ से
 अन्धकार बनी तो 
चाँद की रोशनी से
फिर चांदनी  बनी मैं

सन्नाटे की चीत्कार से
मौन बनी तो
आपके सुर- ताल से
फिर गान बनी मैं

नाकाम हसरतों से
मजार बनी तो
आपकी उम्मीद से
फिर आस बनी मैं

काँटों की चुभन से
लहुलुहान हुयी तो
प्यार की ओस से
फिर गुलाब बनी मैं 



मूर्ती


 
तराश लो तुम भी अपनी 
चाहत की मूर्ती 
इंसान समझा नहीं कोई 
पत्थर  ही सही 


 
गढ जाउंगी जिस 
शय मैं ढालोगे मुझे 
चोट धीरे लगाओ 
पत्थर में भी जान होती है 


मूर्ती बना पूजते रहे 
देवी की तरह 
काश , औरत ही समझा होता 
औरों की तरह 
 

क्यों बनाया था 
मुझे तोड़ने के लिए 
अब , हर हिस्से से सदा आती है 
तेरी सलामती के लिए 

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