~~~~ STORIES ~~~~



1.कांच की गुड़िया 



मुझे दिखाओ, मुझे दिखाओ , कितनी सुन्दर गुड़िया है, सारे बच्चे ज़ोर ज़ोर से शोर मचाने लगे।  राघव जल्दी से आगे आया और अपना दायाँ हाथ बढ़ा कर रोका सभी को।  
अरे छुओ मत , दूर से देखो , टूट जायेगी।    कांच की गुड़िया राघव को पिताजी ने जन्मदिन पर दी थी , सफ़ेद खूबसूरत , पारदर्शी कांच की गुड़िया जिसकी नीली नीली आँखें हैं और जो हमेशा धीरे से मुस्कुराती रहती है। बहुत कीमती है , भला उसे कैसे इन सबको हाथ लगाने दे सकता है राघव।  ऐसी गुड़िया किसी के पास नहीं है, घमंड से उसका सर और उठ गया था।  

बस दूर से देख लो , बाहर नहीं निकलूंगा।  अमित, सूरज , मनन, श्रेया , कीर्ति सब उस गुड़िया से कुछ देर ही सही पर हाथ मैं लेकर खेलना चाहते थे।  पर राघव ने किसी की नहीं सुनी और सबको खींच कर नीचे बैठा दिया।  सब ने मुंह फुला लिया।  राघव ने एक निगाह सब पर डाली फिर उठ कर अपनी अलमारी तक गया और खोल कर उसमे से एक बड़ा सा झोला निकाल लाया। 

लो अब खेलो, कह कर खिलौनों का पूरा झोला उलट दिया।  चाबी वाला बन्दर , रिमोट वाली कार , बार्बी डॉल , उसका कमरा और सजावट का सामन। पटरी पर दौड़ने वाली रेल गाडी , कैरम बोर्ड।  सब ने मन मसोस कर दूसरे  खिलोने उठा लिए।  अमित और मनन कैरम खेलने में लग गए।  सूरज बन्दर की उठा- पटक देखने लगा और श्रेया बार्बी गुड़िया  से खेलने लगी।  कीर्ति रेल गाड़ी की पटरी जोड़ने लगी।  राघव ने कांच की गुड़िया की अलमारी को ठीक से बंद करके चाबी लगा दी फिर कीर्ति के साथ रेल गाडी चलाने लगा।  




कांच की गुड़िया सारे बच्चों को खेलता देख रही थी , उसका भी मन हुआ , नीचे आ कर खेलने का, पर वो तो इस कांच के शोकेस में बंद है , वो भला बाहर कैसे आ सकती है।   श्रेया ने बार्बी गुड़िया को नयी फ्रॉक पहना दी थी और बाल बना रही थी।  बार्बी गुड़िया सज धज कर और इतराने लगी।   तभी मनन ने श्रेया को तंग करने के लिए उसकी गुड़िया की चोटी खींची।बार्बी गुड़िया के बाल उखड कर मनन के हाथ में  आ गए , बार्बी गुड़िया अब गंजी हो गयी थी।  श्रेया बुक्का फाड़ कर रोने लगी।   
राघव आग बबूला हो गया  और एक चांटा मनन के गाल पर लगा दिया , फिर क्या था , ये लात और वो घूँसा।  बच्चों के झगड़ों के बीच ज़मीन पर  पड़ी बार्बी गुडया अलमारी में बंद कांच की गुड़िया को देख कर जलन से लाल हो उठी।  कितने आराम से ये अलमारी मैं सजी रहती है।  बार्बी गुड़िया की फ्रॉक दो जगह से फैट गयी थी , बाल उखड कर तीतर बितर हो गए थे , ज़मीन की  धूल ने  उसके चेहरे पर दाग लगा दिए थे।  दुखी हो रही थी बार्बी गुड़िया, बच्चों ने उसका क्या हाल बना दिया है।  

क्या हुआ ? राघव की मम्मी घबरा कर कमरे में आयीं और गुथ्थम - गुथ्था हुए राघव और मनन को अलग किया।  जैसे तैसे बच्चों का झगड़ा निबटा कर सारे खिलौनों को फिर से भर कर  खिलोने वाला  झोला अलमारी में रख दिया।  फिर बच्चों को बाहर जा कर खेलने के लिए कहा।  बार्बी गुड़िया  कांच की गुड़िया से जलन और ईर्ष्या में दोहरी हुयी जा रही थी।  
पर कांच की गुड़िया मौन बनी देख रही थी। वो सोच रही थी की किस्मत वाली है बार्बी गुड़िया जो बच्चों के साथ खेलती है , हवा पानी, मिटटी सब से वास्ता है उसका।  जबकि उसको तो हवा भी नसीब नहीं थी।  वो तो सिर्फ सजावट के लिए है , अलमारी में बंद।  उसके नीली आँखें और पनीली और चमकीली हो गयीं थी।  बार्बी गुड़िया की नासमझी पर वो और  भी ज्यादा मुस्कुरा रही थी 


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2. अन्न दाता 

दोनों बच्चों  का जल्दी जल्दी टिफ़िन पैक करके विभा ने उन्हें स्कूल भेज दिया।  फिर सफाई वाली को काम समझा  कर अपना पर्स उठाया और लिफ्ट की और लपकी।  लिफ्ट का दरवाजा जैसे ही नीचे खुला , वॉचमन के सलाम का आधा अधूरा सा जवाब देते हुए बस स्टॉप की और तेजी से कदम बढाए।  आज सोमवार है बैंक में बहुत भीड़ होगी।  उन्होंने कॅश ट्रांसफर कर दिया होगा , पैसे निकाल कर फिर स्कूल जाना है और फीस भरनी है।  स्कूल से दो बार नोटिस आ चुका  है , इस बार कुछ ज्यादा ही खर्चा हो गया था।  वो भी क्या करे , बम्बई जैसे शहर मैं घर का किराया और दो- दो बच्चों की पढ़ाई , ऊपर से गांव से आते- जाते मेहमान। आठ बजे की बस ना मिली तो आधा घंटा  और खराब हो जाएगा सोचते हुए इधर उधर देखने लगी।  पड़ोस वाली शर्मा आंटी अपने कुत्ते को सड़क पर टहला रहीं थी। कभी कुत्ता आगे , कभी आंटी आगे। ..कुत्ता चलने का नाम नहीं ले रहा था , परेशानी में भी ज़ोर से हंसी आ गयी उसको। 

तभी सामने से 360  नंबर की बस आती दिखी , लोग सावधान हो गए कि बस नज़दीक आये तो उसमे चढ़ें।  सुबह सुबह ऑफिस जाने वालों को वैसे भी जल्दी होती है।  घर से बैंक का रास्ता भी तो आधे घंटे का है।   भीड़ के रेले के साथ अंदर घुस कर एक खिड़की के किनारे वाली सीट पर जा कर बैठ गयी।  सीट मिलने की ख़ुशी अभी  मना भी नहीं पायी थी कि तभी नीचे के फ्लैट वाली मिसराइन भी उसके बगल वाली सीट पर धप्प से आ कर बैठ गयीं। " अरे विभा कब से हाथ हिला रही थी तुझे , देखती भी नहीं ।  "

 “ ओह ,सॉरी रेनू जी , ध्यान ज़रा काम में लगा था” , कह कर एक फीकी सी मुस्कान दे दी उन्हें।  रेनू जी की बत्तीसी खिल गयी। अजीब हैं ये भी ,जब देखो सबके काम में दखलंदाजी   की आदत है। रेडियो वेबकास्ट हैं पूरी सोसाइटी की, एक बात कहीं से सुन लें तो शाम तक हर घर में खबर पहुँच जाए।  

रेनू जी फिर आंखें मटका कर बोली, बताओ तो सही विभा आज इतनी सुबह कहाँ चल दी।  जवाब सुने बिना रेनू जी उसे छोड़ने वाली नहीं ,सोच कर विभा ने कहा " कुछ नहीं रेनू जी बस बच्चों के स्कूल जाना था, मैडम ने बुलाया है , आप कहाँ जा रही हैं " औपचारिकतावश पूछा  विभा ने।  रेनू जी को तो बोलने का बहाना चाहिए था " मंदिर जा रही हूँ , सोमवार का व्रत रखा है।  सुगंधा के लिए रख रही हूँ, वो तो नहीं रखती, मैं ही रख लेती हूँ , कोई लड़का मिल जाए तो इस साल उसकी शादी कर देनी है बस।  " 

सुगंधा , रेनू जी की लाड़ली बेटी , काम धाम कुछ नहीं, बस सारा दिन मोबाइल पर दोस्तों से गप-शप।  अब रेनू जी का बेटी पुराण शुरू , पर मजबूरी है बस की सीट छोड़ कर कहाँ जाए विभा, सुनना ही पड़ेगा।  जैसे तैसे बीस मिनट बीते तो मंदिर आ गया।  विभा को घर आने की हिदायत दे कर उतर गयीं रेनू जी।  विभा ने चैन की सांस ली और सामान की लिस्ट चेक की, स्कूल के बाद घर का सामन भी तो ले कर लौटना है।  

बैंक का काम ख़तम होते- होते दस बज गए।  बच्चों  के स्कूल पहुंची तो फीस काउंटर पर भी लम्बी लाइन लगी थी।  लास्ट डे था आज फीस  भरने का , इतने सारे लोगों ने अभी तक फीस नहीं दी है , चलो वो अकेली नहीं है फीस में देर करने वाली।  
घर का सारा सामान एक दुकान  से दूसरी दुकान  करते करते दो बैग भर गए।  दोनों बैग उठा कर फिर बस स्टॉप पर पहुंची तब तक सूरज चढ़ आया था।  बारह बजे की चिलचिलाती  धूप में पसीने छूट रहे थे।  पसीना पोंछती बस में चढ़ी तो बस खाली सी थी ।  इस समय कौन घर जाएगा , बड़े ऑफिस, बच्चे स्कूल, उस जैसी  इक्का दुक्का ही औरतें होती हैं यहाँ।  ज्यादातर औरतें भी ऑफिस में नौकरी करती हैं, वही सुबह से शाम तक दौड़-  भाग वाली ज़िन्दगी।  

खाली बस में मनचाही सीट चुन कर  सामान  के बैग  सीट  के साइड मैं रखे ,फिर नयी किताब निकाली और पढ़ने लगी।  अभी तो आधा घंटा है, कुछ पन्ने तो पढ़ ही लूंगी। बस चल रही थी , खिड़की से गरम हवा आने लगी , उचाट सी निगाह बस में बैठी ऊँघती औरतों पर डाली  और खिड़की बंद ही करने जा रही थी  कि नज़र नीचे गयी। बस आशापूरा कॉलोनी जहाँ उसका घर है  उससे पहले वाले स्टॉप नीलम नगर से गुज़र रही थी।  बस स्टॉप के पास आग उगलती धूप मैं एक बूढा केले वाला टोकरी में कुछ केले लिए बैठा था।  विभा उस बूढ़े आदमी को देख कर स्तब्ध रह गयी।  बूढा आदमी और केले दोनों ही एक सामान काले थे।  टोकरी में कुल 10 -15   केले वो भी बासी और निपट काले , कौन खरीदेगा ऐसे केले ? 

बस आगे बढ़ गयी थी, पर विभा का ध्यान उस बूढे केले वाले मैं ही अटक गया था।  कौन होगा ? ऐसी क्या मजबूरी होगी उसकी जो बासी केले बेचने को भी धूप मैं बैठा है ? ऐसे कैसे घर चलता होगा उसका? जैसे अनगिनत सवाल उसके जेहन मैं घूम रहे थे कि कन्डक्टर ने आवाज़ दी ... आशापूरा , आशापूरा। 

अपने स्टॉप का नाम सुन कर उसकी तन्द्रा टूटी, बैग संभालते उतरी और घर पहुँचते ही बिस्तर पर पसर गयी।  कुछ देर आराम करने के बाद फिर से केले वाले का ध्यान आया।  तभी दरवाजे की घंटी बजी , अनमने मन से उठ कर दरवाजा खोला तो बाहर शर्मा आंटी खड़ी  थीं। 

 विभा को देखते ही शर्मा आंटी ने शब्दों की रेल-गाडी छोड़ दी , " विभा मेरे साथ पार्लर चलोगी क्या ?, बस आधा घंटा लगेगा , गाडी से जाएंगे , गाडी से आएंगे  , तुम साथ होती हो तो अच्छा रहता है , बालों का स्टाइल तुम अच्छा बनवा देती हो।  

शर्मा आंटी को हर बार नयी तरह से बाल कटवाने का शौक है , आज फिर उन्हें कहीं पार्टी में जाना होगा।  एक बार तो मन हुआ कि ना कर  दे , बहुत थक गयी हूँ आंटी।  फिर अचानक केले वाला ध्यान में आया , नीलम नगर के बस स्टॉप के पास ही तो पार्लर है।  कौतहुल वश बोल पड़ी , हाँ आंटी चलिए चलती हूँ।  
 केले वाला अभी भी बस टॉप के पास बैठा था और आते जाते लोगों को बड़ी आशा भरी नज़रों  से देख रहा था।  लोग अनदेखा करके निकलते जा रहे थे, कौन खरीदेगा ऐसे केले।  

विभा ने आस पास नज़र दौड़ाई , कुछ दूर पर एक गाय खड़ी  थी। समझ गयी विभा उसे अब क्या करना है।  वो केले वाले के पास जा कर पूछने लगी की सारे केले कितने के हैं।  बूढ़े की आँखों  मैं चमक आ गयी , बोला 10 रूपये दे दो।  शर्मा आंटी हैरानी से विभा को देख रहीं थी , बोली " इनका क्या करोगी ? " 
 विभा ने केले वाले को 20 रूपये निकाल कर दिए और कहा की रख लो बाबा , और उससे सारे  केले लेकर गाय को खिला दिए।  बूढा उसे बहुत सी दुआएं और धन्यवाद दे कर टोकरी उठा कर चला गया। 

शर्मा आंटी से रहा नहीं गया , क्या- क्या करती हो विभा तुम भी।  ठीक है न आंटी , किसी गरीब का कुछ तो भला हुआ , और गाय का पेट भी भर गया , 10 - 20 रूपये कोई बहुत बड़ी बात तो नहीं।  पार्लर  का काम होते- होते ढाई बजने को आये , बच्चों के स्कूल से आने का टाइम हो गया।  पूरा दिन भाग- दौड़ में निकल गया पर संतुष्ट थी विभा केले वाले को कुछ ख़ुशी दे कर।

 कई दिन तक  वो केले वाला उसके दिमाग में घूमता रहा।  एक हफ्ते बाद शाम को टहलने निकली तो सोचा की पैदल जाती हूँ नीलम नगर तक।  नीलम नगर पहुँच कर नज़र दौड़ाई  तो केले वाला  उसे  कहीं नज़र नहीं  आया। जूस वाला खड़ा था  हर रोज़ की तरह पेड़ के नीचे।  जूस वाले के पास पहुँच कर एक गिलास जूस पिया और उसको पूछा  की वो बूढा केले वाला कहाँ गया। जूस वाले ने  बेमन से जवाब दिया " पता नहीं "।  तभी एक नीम्बू  मिर्च बेचने वाला लड़का उधर से निकला पांच के 2 , दस के 5 , पांच के दो  , दस के पांच। उसे रोका विभा ने , उससे 10 रूपये के नीबू लिए , फिर लड़के से पूछा , वो केले वाला बाबा नहीं दिख रहा।   

लड़के ने विभा को ऊपर से नीचे तक देखा , फिर बोला “ वो बीमार है इसलिए 4  दिन से नहीं आया।´
“मुझे उससे मिला सकते हो “ , लड़के से आग्रह किया विभा ने।  अब लड़के को और ज्यादा हैरानी हुयी , भला ये मैडम उस बूढ़े केले वाले से क्यों मिलना चाहती हैं ? असमंजस में था वो की क्या कहे। विभा ने उसकी दुविधा समझ कर कहा , की उसके पैसे बकाया है कुछ वो देने हैं मुझे।  
अब लड़का बोला, हाँ पास की खोली में रहता है , चलिए आपको उसका घर दिखा देता हूँ।   नीम्बू वाला लड़का विभा को बूढ़े बाबा के घर तक ले गया।  छोटी सी खोली के बाहर चारपाई पर बूढा बाबा खांस रहा था , खोली में एक बूढी अम्मा चाय बना रही थी।  विभा को देख कर वो बूढी अम्मा  बाहर आयी और उससे काम पूछने लगी।  

काम क्या बताये  विभा ? उसे तो बूढ़े की मजबूरियों ने झकझोर डाला था। संभल कर  अम्मा से कहा, मैं बाबा से अक्सर केले लेती हूँ , कई दिन से उनको देखा नहीं इसलिए आयी हूँ।  अब तक बूढा भी विभा को पहचान गया था , पर हैरान था।  विभा ने अम्मा से  पूछा , कि घर मैं  और कौन रहता है ?

अम्मा ने अपनी  गंवई  भाषा में विभा को बताया " कोइयो  नाही है बिटिया ,हमई दोन  है इब , एको  बिटवा हुए रहिन , पर उ  भी दुई बरस पाछे  पटरी पार कराई बखत ट्रेनवा के निचु आईं रहिल , का करिबे , ऊपरवाले की मर्जी कोउ जान सकत  का , बस अब जइसन तइसन  जिनगी  चलबे करे  "
लगता है बिहार के हैं ये लोग , भाषा से अंदाजा लागते हुए विभा ने सोचा , फिर पर्स से 100 का नोट निकाल कर देते हुए कहा , इलाज करा लो बाबा का, मैं फिर आउंगी एक  हफ्ते बाद।  
स्वाभिमानी बूढा बोल पड़ा " एकी कोउ जरुरत नाही बिटिया "
नहीं नहीं बाबा , आप रख लीजिये , चाहिए तो  बाद मैं आपसे  केले ले लूंगी। 

एक हफ्ते बाद जब विभा बूढ़े के घर पहुंची तो बूढा पहले से बेहतर दिखा।  विभा को देखते ही दोनों ने नमस्कार किया , और बूढी अम्मा तो मानो विभा के पैरो पर ही गिर जाती।  विभा ने बूढ़े बाबा  को और 100 रूपये दे कर कहा की इन पैसो से केले खरीदो और बस स्टॉप की जगह मंदिर के पास बैठना। बूढ़े ने विभा से रूपये ले कर धन्यवाद किया , दोनों की आँखों से  गंगा जमुना बह रही थी। 
  
अगले सोमवार , विभा भी तैयार हो कर सुबह मंदिर के लिए निकली तो रेनू जी उसे देख कर हैरान रह गयीं।   विभा , तुम भी मंदिर चल रही हो ? विभा मुस्कुरा कर बोली ,"  हाँ रेनू जी चलिए आज आपके साथ मैं भी भगवान् के दर्शन कर लेती हूँ। "  बस से विभा और रेनू जी मंदिर के पास उतरी तो  बूढा केले वाला साफ़ और ताजे केले  टोकरी में ले कर बाहर ही बैठा मिला।  विभा  ने उसके पास जाकर केले लिए और मंदिर के बाहर  भिखारियों और बच्चों में केले बाँट दिए।  उसकी देखा देखी  रेनू जी ने भी केले लेकर बाँट डाले. भला वो विभा से  पीछे कैसे रह जाती।

   
अब तो नियम बन गया, विभा और रेनू जी हर सोमवार मंदिर जातीं , तो केले वाले से केले लेकर बाँट देती।  जल्दी ही और लोग भी   केले लेकर बांटने लगे।  बूढ़े बाबा की टोकरी में केले की संख्या और चेहरे पर ख़ुशी की चमक एक साथ ही बढ़ रही थी।  





सावन के सोमवार को विभा जब मंदिर के पास पहुंची तो हैरान रह गयी, आज बूढ़े बाबा की केले की टोकरी की जगह  ठेला गाडी  ने ले ली थी।   
सफ़ेद कुरता पजामा पहने बूढा बाबा ठेले के पास जमा लोगों को तोल तोल कर केले दे रहा था।   विभा के पास पहुँचते ही सर झुका कर उसको नमस्कार किया।

 " कैसे हो  बाबा मुझे भूले तो नहीं " कह कर हँसते हुए पूछा  विभा ने ।  


तुम तो मेरी जीवन दायिनी हो , हमारी अन्न दाता हो बिटिया, तुम्हे कैसे भूल सकता हूँ।   भगवान् से पहले तुम्हारा नाम लेता हूँ , कह कर बूढा बाबा गद -गद  हो उठा। विभा अपनी आँख के आंसू पोंछ कर मंदिर में गयी और भगवान् के आगे शीश नवाकर  धन्यवाद दिया , एक अच्छी शुरुआत के सहभागी बनने के लिए।  
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 3.    एक दिन की ज़िन्दगी 






     मधु , मधु, मधु , माँ  आवाज़ लगा रहीं थी।  मधु बगीचे मैं से हाथ में तितली लिए आई  और माँ से मचलते हुए बोली, माँ देखो कितनी प्यारी तितली है , मुझे इसको पालना है।   माँ हँसते हुए बोली, ऐसे ही देख कर उड़ा  दो वरना ये मर जायेगी। नहीं माँ, नहीं मारेगी , मैं इसको कांच के मर्तबान में रखकर , ऊपर से जाली ढँक दूँगी, फिर नहीं मारेगी. मुझे भी इसकी तरह उड़ना सीखना  है।  


माँ और  मालती बुआ मधु की बाल-सुलभ  बातें सुन कर ठठा  के हंस पड़े।   माँ मुस्कुराती हुयी बोली, तू क्या तितली से कम है, जब देखो यहाँ वहां फिरती रहती है। पर कीट- पतंगों की ज़िन्दगी बस एक या दो दिन की होती है।  आश्चर्ये से अवाक रह गयी अंधु , बस एक दो दिन ? इतने कम समय में क्या कर पाएगी ?  ये तो बहुत ही कम हैं।  मालती बुआ  अपने दार्शनिक अंदाज़ में बोली " अरी बिटिया ,  भरपूर जियो तो एक दिन भी कम नहीं होता " 

मालती बुआ वाले फूफाजी का दस  साल पहले सड़क दुर्घटना में स्वरवास हो गया था , तबसे  वो थोड़ी संजीदा हो गयीं थी। मालती बुआ का बेटा  पढ़ाई करने दुसरे शहर गया हुआ है।  जब तक वो पढ़ लिख कर आएगा तब तक मालती बुआ हमारे साथ ही रहेंगी।  फूफाजी मालती बुआ से बेहद प्यार करते थे , सिर्फ सात साल ही साथ बिता पाये थे, लेकिन सात साल में इतनी यादें  बना गए  की  करके मालती बुआ आज भी  गदगद हो नवयौवना सी लजा जाती हैं।  पर मधु कहाँ समझने वाली थी  इतनी गहरी बातें , वो तो अपने ही धुन में मगन  मालती बुआ को देखकर  बोली " तो क्या ये तितली भी दो दिन के बाद तारा  बन जायेगी फूफाजी की तरह ? " 

माँ , मधु को टॉक कर बोली , " अरे ओ तितली रानी चल खाना खा ले अब " . तभी बाहर से मधु का भाई आया और मधु को छेड़ते हुए बोला , " अरे ये तितली नहीं ये तो  मक्खी  है, मधु मक्खी , चिपक गयी तो हटने वाली नहीं है " . मधु मुंह फुला कर बैठ गयी और सब जोर जोर से हंसने लगे।  हंसी मज़ाक में कब मधु शादी लायक हो गयी  और एक दिन छोटे से कसबे की मधु ब्याह कर बड़े से शहर दिल्ली आ गयी।  


मधु  के पति संजीव एक कंपनी में चीफ सुपरवाइजर हैं जो  बड़ी- बड़ी इमारतें बनाते हैं।  कांट्रेक्टर और सुपरवाइजर  सबसे ज्यादा मसरूफ रहते हैं।  मधु का घर भी एक बड़ी सी ईमारत  में सोलहवें माले  पर है।  सब कहते हैं " राज कर रही है हमारी बेटी " जब भी गांव जाती सब पूछते क्या क्या घूमा दिल्ली में।  पर मधु के पति देव को घूमने फिरने के लिए फुर्सत ही कहाँ थी।  जब भी कहती क़ुतुब मीनार दिखा दो, तो उल्टा ही जवाब मिलता , क्या   रखा है  क़ुतुब मीनार में, उससे ऊंची ईमारत में तो तुम रहती हो।  गांव से रक्षा बंधन पर भाई आया तब उसके साथ पूरा शहर घूमा. दो साल दिल्ली में रह कर भी वो शहर से अनजान ही थी।  सुबह से शाम घर का काम , या देर रात तक आने वाले पति का इंतज़ार,  कभी कभार पड़ोसियों से थोड़ी बातचीत , बस यही उसकी दिनचर्या का दायरा था. बचपन के फूल, तितली, बादल, पंछी कब के उड़  गए थे। 

दो साल के बाद  संजीव का तबादला उदयपुर हो गया।  उदयपुर बेहद खूबसूरत  शहर है , झीलों और राज घरानो के आलीशान  महलों के राजसी ठाट - बाठ  से सुसज्जित।  उदयपुर में  तीन- चार हफ्ते  घर का सामान लगाने और आस पास के लोगो को जान-ने  में निकल गए।  अच्छे लोग हैं सभी , पर उसके पति को ज्यादा मेल-जोल  पसंद नहीं तो कम ही मिलती थी  वो किसी से।  सामने वाला घर बंद रहता था , पर उस घर का बाहरी दरवाज़ा  सीधे  उसके कमरे की खिड़की के सामने खुलता था।  बाकी सारे घरों के लोगों से तो मधु की  पहचान हो गयी थी पर ना जाने   क्यों उस बंद खाली घर जब भी उसकी निगाह जाती वो सोचती ये घर किसका है। 

एक दिन दोपहर को सारा काम खत्म करके वो खिड़की से बाहर का नज़ारा देख रही थी की एक मोटर साइकिल आ कर सामने वाले घर के दरवाजे पर रुकी।  अपना कौतहूल नहीं रोक सकी मधु।  मोटर साइकिल सवार सर से हैलमेट उतार कर अंदर जाने लगा , तभी उसकी नज़र मधु पर पड़ी।  मधु को अपनी ओरे एक टक  देखता  देखकर  दो पल को ठिठक गया फिर हाथ का सामान उठा कर अंदर चला गया। 

एक हफ्ते बाद , जब मधु सब्जी ले कर लौट रही थी , उस दिन वजन कुछ ज्यादा ही हो गया था , चलते चलते हांफने सी लगी।  तभी उसके पास मोटर साइकिल आ कर रुकी  और उसी लड़के ने मुस्कुरा कर पूछा की अगर वो बुरा न माने तो वो उसका  सामन घर तक पहुंचा दे।  उसके अपनत्व भरे आग्रह को ठुकरा  ना  सकी   मधु।

साथ   चलते चलते लड़के ने पुछा आपको पहले कभी नहीं देखा , लगता है आप यहाँ नयी आई हैं।  मधु ने एक अजनबी से ज्यादा बात ना करते हुए संछिप्त में  उत्तर दिया , " हाँ , बस अभी कुछ ही महीने हुए हैं " फिर कुछ सोचते  हुए पूछा " आप भी यहाँ नए हैं क्या ? " लड़का हँसते हुए बोला, नहीं  मैं तो बचपन से यहीं रहा हूँ , मेरा नाम आनंद  है , मैं महिंद्रा  कंपनी में सेल्स मैनेजर हूँ. पिताजी रिटायर्ड पुलिस कमिशनर हैं.  पर कुछ साल से हम लोग कोटा में रह रहे थे।  मेरे बड़े भाई कोटा में रहते हैं, वो वकील हैं , माँ  और पिताजी भैया  की शादी के बाद भाभी के साथ रह रहे थे ।  अभी पिछले महीने भाभी को बेटा  हुआ है।  मेरा ट्रांसफर  कोटा से  उदयपुर हो गया , मुझे जॉब ज्वाइन करनी थी इसलिए जल्दी आ गया।  माँ - पिताजी अगले महीने के बाद आएंगे। बाते  करते करते घर के दरवाजे तक आ गए थे।  मधु आनंद को धन्यवाद दे कर  घर आ  गयी। 


मधु को आनंद एक अच्छा व्यक्ति लगा , जैसा नाम वैसा  स्वभाव , मिलनसार, हंसमुख, और शालीन। पर  शायद अभी शादी नहीं हुयी है वरना उसका भी जिक्र तो करता,  हो जायेगी क्या कमी है भला, लम्बा कद, गोरा, सुन्दर और बेहतरीन व्यक्तित्व , सोचते हुए घर के काम  करने लगी।  फिर भी आनंद उसके दिमाग से  गया नहीं , ऑफिस से आते जाते खिड़की से दिख जाता तो दुआ सलाम हो ही जाती 
  
चार दिन से बुखार था मधु को, सारा बदन दुःख रहा था।  हिम्मत करके शाम के समय डॉक्टर को दिखाने  निकली, बहुत भीड़ थी डॉक्टर के यहाँ , लौटते लौटते साढ़े आठ बज गए।  घर के सामने रिक्शे वाले को पैसे दे ही रही थी  की सामने से आनद आता दिखा।  मंन ठीक नहीं था फिर भी रुक गयी।  आनंद ने नमस्कार किया फिर पूछा " आज आप की तबियत ठीक नहीं है क्या ? " मधु ने आनंद को बताया की डॉक्टर ने वायरल बताया है। बस फिर क्या था, आनंद ने मधु को  हिदायतों की लम्बी सी लिस्ट बयां कर दी. लेकिन मधु की ओर  से ज्यादा उत्तर न पा कर , सिर्फ " अपना ध्यान रखिये " कहकर  चला गया। 

" अब कैसी हैं मधु जी ? " आनंद की मुस्कराहट भरी आवाज़ ने खिड़की पर कड़ी मधु को ख्यालों की दुनिया से बाहर ला दिया।  ना जाने कब से खड़ा देख रहा होगा , सोचते हुए मधु ने शर्मीली मुस्कान से कहा " अब ठीक हूँ " . आज वाकई वो अच्छा महसूस कर रही थी तभी तो एक  घण्टे से सामने पार्क  में खेलते हुए बच्चों को देख रही थी " फिर तो आज शहर घूम आइये भाई साहेब के साथ , आज संडे भी है, आज तो छुट्टी होगी " आनंद ने  कहा. फिर बोला " कल उन्हें देखकर आवाज़ दी थी मैंने , पर शायद उनका ध्यान कहीं और था जवाब नहीं दिया" ।  मधु को चुप देखकर फिर से पूछा आनंद ने " वैसे क्या क्या घूम लिया अब तक " ऐसे सवालों के  जवाब नहीं होते  उसके पास, कुछ सकुचाते हुए कहा " नहीं अभी नहीं जा पाये हैं,समय नहीं मिल पाया  है, जाएंगे किसी दिन " उसके अटपटे से स्वर को भांप कर आनंद बोला " अच्छा अब चलता हूँ अभी माँ और पिताजी को लेने स्टेशन जा रहा हूँ " आनंद तो चला गया पर मधु के अंदर कुछ हिल सा गया। 

रात को संजीव के आने पर मधु ने  शहर घूमने की फरमाइश कर डाली।  पर संजीव ने उससे टालते हुए अगले हफ्ते का वादा कर डाला।  उस वादे को किये हुए दो महीने हो गए पर अभी तक वो जा नहीं पायी।  मधु को आनंद की तरह उसके माँ और पिताजी का भी स्वभाव बहुत अच्छा लगा।  आनंद की माँ उसे  बेटी की तरह प्यार करती थी।  काफी घुल मिल गयी  मधु एक साल में आनंद के परिवार से।  आनंद की माँ शारदा जी अब बस अपने दुसरे बेटे आनंद की शादी के लिए बेसबर हो रही थी, जैसे आज लड़की मिल जाए तो कल शादी कर दें 

आनंद के परिवार के साथ त्यौहार मनाते भूल जाती थी की  उस शहर में वो अकेली है , इतना अपनापन मिला था उन सभी से।  होली के बाद संजीव को किसी जरूरी काम से चार दिन के लिए दिल्ली जाना पड़ा।  शनिवार को मधु शाम के समय आनंद की माँ शारदा जी से बातें कर रही थी, तभी आनंद भी जल्दी ऑफिस से आ गया और चाय पकोड़े खाते कहते सभी ने संडे को शहर घूमने, पिकनिंक का प्रोग्राम बना लिया।  परिवार के साथ घूमने  जा रही थी इसलिए संजीव से भी परमिशन मिलने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुयी। 

उत्तावली हो रही थी मधु सुबह के इंतज़ार में , दस बजे के पहले ही तैयार हो गयी।  पर जब आनंद के घर पहुंची तो पता चला की आनंद के पिताजी को कमजोरी महसूस हो रही थी, इसलिए वो नहीं जा पाएंगे और उनकी देखभाल करने  के लिए शारदा जी ने भी जाने से मना  कर दिया।  मधु के सारे उतावलेपन पर पानी फिर गया। 


शारदा जी ने   मधु के उदास चेहरे को देख कर कहा " अरे हम नहीं जा सकते तो क्या हुआ, तुम दोनों ही चले जाओ " कशमकश में थी मधु की क्या करे , पर शारदा जी ने ज़िद  करके आनंद और मधु को घूमने भेज दिया। आनंद के पिताजी को  डॉक्टर के पास जाना था इसलिए मोटरसाइकिल पर ही जा सकते थे। हिचकिचाते हुए और डरते हुए मधु मोटरसाइकिल पर बैठ रही थी , आज से पहले  वो कभी मोटरसाइकिल पर नहीं बैठी थी।  आनंद ने भी उसकी हंसी उड़ाई  " कभी बैठी नहीं क्या आप मोटरसाइकिल पर " शर्म के कारण कोई जवाब नहीं सूझ रहा था उसे। 

सबसे पहले फतेहसागर झील गए।  झील के निर्मल पानी और उस पर खिले कँवल के फूल और चिहुँकती हुयी बतखों को देख कर मधु का मंन  भी झूम उठा।  पानी में संगीत के स्वर सुनाई देने लगे।  बरसों बाद फूल, तितली, पंछी  सब सजीव हो उठे थे।  इतने मनोरम वातावरण में मधु के मुरझाये हुए मन  में भी फूल खिल गए। फतेहसागर झील के पास ही नीमच माता का मंदिर था,  दर्शन किये फिर गुलाब बाग़ गए।  इतने प्रकार के गुलाब पहली बार देखे मधु ने , फूलों की खुशबु से सराबोर हो गयी। गुलाब बाग़ के बाद पिछोला झील गए, वहां झील के बीच में लेक पैलेस है. वहां बैठ कर राजस्थानी थाली  के खाने में मजा आ गया।  पिछोला झील के बाद  दूध तलाई  उद्यान गए, दूध तलाई उद्यान और करणी  माता के मंदिर को जोड़ती रस्सी वाली ट्राम गाडी में बैठी तो डर के मारे जान निकल गयी।  आनंद उसे देख देख कर हंस रहा था। वहां से डूबते सूरज का नज़ारा मंत्रमुग्ध  हो देख रही थी मधु , आकाश की लालिमा मधु के चेहरे पर बिखर रही थी और आनंद उसके गुलाबी चेहरे  को देखता ही रह गया।  अचानक मधु की नज़र आनंद  की एकटक उसे देखती हुयी नज़र पर गयी तो वो सकुचा कर झेंप गयी और नज़रे झुका ली। 

बस आखिर में शिल्पग्राम  गए , वहां जिद करके आनंद ने मधु को एक कढ़ाईदार सूट दिलवा दिया।  मधु ने कुछ  चूड़ियाँ और बंधेज  की चुनरी भी ली।  गोल गप्पे और प्याज की  कचोरी खा कर मधु की चटपटा खाने की इच्छा भी पूरी हो गयी।  पूरा दिन मानो पंख लगा कर उड़ गया।  रात को बिस्तर पर लेटी  दिन भर की बातों के बारे मैं सोचते सोचते सो रही थी, आज पहली बार एक सुकून भरी मुस्कान उसके होठों पर फैली हुयी थी। 

अब जब कभी भी फुर्सत मिलती मधु को वो आनंद और उसके माँ- पिताजी के साथ बातें करती, तो उसकी सारी उदासी और थकान पल भर में छू हो  जाती थी। अब तो अक्सर ही बिना कारण अपने ख्यालों में मुस्कुराती रहती थी। फिर एक दिन अचानक  गांव से भाई का फ़ोन आया की माँ की आँख का ऑपरेशन होना है।   मधु को माँ के पास  देख भाल  के लिए गांव जाना पड़ा।  पूरा एक महीना लग गया माँ को पूरी तरह स्वस्थ होने में।  वापस आ कर देखा तो आनंद का  घर फिर से बंद था।  कहाँ चले गए सब , बिलकुल मंन  नहीं लग रहा था मधु का।  दिन मैं कई बार उसका ध्यान वहीँ चला जाता था की कोई आया कि  नहीं। 



दस - पंद्रह दिन बाद अलसाई सी दोपहर में , उसके कानो में दरवाजा खोलने की आवाज़  आई, सारा आलस एक पल में फुर्र हो गया।  दौड़ कर खिड़की के पास आई तो , आनंद को दरवाजे से बाहर निकलते देखा।  मंन हुआ की भाग कर नीचे जाए और पूछे की इतने दिन से कहाँ गायब  थे सब, कब वापस आये।  तभी निगाह पड़ी अंदर से निकल कर आती हुयी सजी  संवरी लाल साड़ी , भर- भर हाथ लाल- हरी चूड़ियाँ पहने , गोरी- चिट्टी  मांग में सिन्दूर सजाये इठलाती युवती पर।  दिल धक से रुक गया।  आनंद ने मुस्कुराते हुए कार  का दूसरी तरफ का  दरवाजा खोला , तो वह युवती आँचल संवारते हुए  कार  में बैठ गयी।  फिर ड्राइविंग सीट वाला दरवाजा खोल कर आनंद बैठा और कार चली गयी। 



                     मधु ना  जाने कितनी देर तक खिड़की पर यूँ ही खड़ी देखती   रहती अगर फ़ोन की घंटी ना  बजती।  कामवाली का फ़ोन था उसका बेटा  गली के बच्चों से लड़ बैठा था, बहुत चोट  आई थी, टाँके लगवाने पड़ेंगे माथे पर , इसलिए उसे आज काम से छुट्टी चाहिए थी।  फ़ोन रख कर एक बार फिर से बाहर देखा , कार तो कब की  जा चुकी थी।  बाहर सड़क पर सिर्फ धुधूल  उड़ रही थी  और सन्नाटा फैला था।  बाहर से जयादा सन्नाटा उसे  अपने अंदर महसूस होने लगा था। 

सारे बिखरे कपडे समेट  कर वाशिंग मशीन में डाले ,  झाड़ू उठा कर घर को  झाड़ने लगी।  हॉल में झाड़ू लगाते लगाते नज़र दीवार पर लगी कश्मीर के शालीमार बाग़ वाली तस्वीर पर गयी।  तस्वीर में रंग बिरंगे फूलों पर लाल - पीली , नीली - हरी तितलियाँ चिपकी हुयी थी।  आज मधु को उन बेजान तितलियों की एक दिन की ज़िन्दगी का अर्थ समझ में आ गया था। 

मंजरी 
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4. Akhil in the Venus Land 

This morning when Akhil woke up and looked in the mirror. He did not recognize the face that he saw in the mirror. He looked once more at the face. No, this is not me, he cried with dismay. It was a stranger’s face . A slight pink shade of the face with little tilted nose, two round owl eyes and  no hair . Who is this ? This is not me. He hurriedly touched his face , to be sure of what he is seeing in the mirror is real



He was totally bewildered. How did this happen ? . Last night when he slept on his bed, everything was fine . He was reading a book , a trip to Venus . Book was still there on the bedside table. Everything else in the room seemed the same. Only his face is changed. How will he go out with this stranger’s face. Everyone will laugh at him. He was feeling scared and insecure. No one will accept him anymore. His parents, sister and friends, all will reject him. He sat on the bed with a thud and felt as if he is sinking . Tears were rolling out of his eyes.  Suddenly he noticed an orange light seeping through the window panes. It’s morning, but then no one has yet knocked on the door. Mummy always comes to get a cup of tea, she also hasn’t  appeared. As he glanced on the side clock, the times was 10 ‘o’clock night. Strange , he was confused, orange light seeping from the window was spreading in the room.


He get up from the bed and opened the window. He sat aback suddenly. His eyes were dazzled with the glittering bright orange light scattered in the whole room. So much light at this hour of night, that too orange colour. After a  few minutes when his eyes get accustomed to the light, he saw, few men with the strange  face similar to him moving in the big oval room. He was surprised. Then he look around the oval hall. The floor was sky blue and shining, like a  blue translucent glass. There were lots of tables with few machines on them. On a table , a round red colour fire ball was burning, without any stove, and on that fire a glass jar has some green colour fluid  simmering. The green fumes were spreading in the air.

Everything is strange and new. Where am I? If I am at some new place, then how my room is the same ? He was still thinking, when he saw a man , wearing white and purple checked swimming costume type tight fitting attire coming towards  him. “Bonjour comment allez-vous Akhil “ spoke the man in soft  polite  voice.  He couldn’t understood anything except his name Akhil. How did you know my name ? Who are you ? How has my face changed ? Where am I ? he triggered the questions at the man surprisingly. The man smiled at him and said Welcome Sir to Venus land . I am Shimonk , head incharge  of mission “earth-species”. You are in Venus land. We have brought  you for some help, along with your room image. Your room is still in your house. We brought  the mirror image of your house which is as real and lively as your room. But we have to change your face features due to some reason, otherwise you will be recognized by Greg the destroyer .

Shimonk explained Akhil , that Greg the scientist has developed a virus, which when he transfer  to any Venusian , the habitants of Venus , they become lethargic and  unable to breathe and die of choking. Therefore we need your help as you are a very kind and helping boy. Akhil was more alarmed and afraid. Shimonk pacify his worry, that it’s only he can help them, as his body secretes a special hormone, which they need to develop a protein as an anti dose to the killing virus of Greg.

After sometime Shimonk took  Akhil to visit  in the hall. The green drink that was simmering in the glass  jug  was vitamin juice. Shimonk gave Akhil a small glass of green juice. Fearing a  little Akhil drank the juice, it was quiet similar to spinach and tomato juice. He feel refreshed and an outburst of  energy filled  his body. Shimonk told him, we don’t need to eat food or any thing else. Its this juice that they need to drink 2 times a day.


Cool, Akhil thought, no worry of eating the dal, rice and so many vegetables his mother cooks. The next morning Shimonk took him for a visit on venus land. It was a strange planet. Small green mountains were all around. Dark brown trees trunk have red leaves  and green colour fruits . The flowers on the plants were blue and yellow. The sky was covered with  pinkish colour clouds and the mud below his feet was of sky blue colour. Akhil was amused to see all this. The houses were round like igloo houses. People were travelling on the road on boat shaped cars, the two seated cars  had no steering wheel, just few buttons on dashboard and multi-coloured lights with antenna on the top. Shimonk told Akhil that it is transmitter  which directs the cars .

Akhil stopped to see a big blue hexagon on the open ground. Few small hexagons were also there behind the big one. What is this ? spluttered Akhil with a startled face. Shimonk said that it is the satellite of Venus , which they use to go to other planets and  the smaller ones are folding satellites, they can be enlarged to the size of a big room to the size of a small jewel . The smaller ones are made  up of a special fibre . Two people can travel in them comfortably. After taking a round , Shimonk and Akhil returned back. After having one more glass of green juice, Shimonk get a small glass bottle and a long injection needle. He pricked the needle in his arm and take out his blood. Relax Akhil, said Shimonk. We have to take some more of your blood to prepare the vaccine. 

In the evening , Shimonk once again took the blood and said that next morning he will take him back to earth.Akhil was wondering, whether he will be able to go back ? Will these people let me go ? Shimonk read his thoughts and said. Don’t worry, I am your friend, I won’t harm you , I will help you to go back , as soon as enough blood is collected .

 And what  about my face ?. Will I have to live my whole life with this face?. Akhil was horrified to even think of it. No no, said Shimonk and took out a pink mask with 3 buttons on it. Shimonk said, this is special mask, when you wear it and press the right side button , you will get back your original  face. 



And my room, interfered Akhil . Oh yess, here it is , Shimonk take out a round  silver  plate  with a star button on it and  a display menu . Shimonk explained that it  is the key of his room. When you feed the direction and place in this menu , your room image  will be taken to anywhere on this planet, but this key  can be used only on Venus . You can’t travel outside venus with the help of this key. 


Akhil was excited to go back to earth and was waiting for Shimonk, but Shimonk didn’t turn up. By afternoon Akhil was impatient, he was feeling hungry too. A new man came at 3 p.m. and gave Akhil green juice. Akhil asked about Shimonk. The new man named  Moose told that Shimonk  is affected by the virus  of Greg and won’t be able to come. Oh no, then how will I go back, The man said to Akhil  ,no you can’t go back, we need you to cure our men and he went back.

 Akhil was sad and worried. In the evening he asked the man to meet Shimonk. After much request, Moose  took him to another  room, where Shimonk was lying on bed . Shimonk told Akhil that while going to his usual trip to collect green herbs , he got infected by the virus. Since Akhil has lended his blood to create anti dose, he will be cured soon , but will take time and he can’t help him to go to earth. And now Akhil has to go by himself. He can take the small hexagon and go back to earth. But how will I go till there ? Shimonk smiled and helped him . He  feed the  direction on the silver plate  and instructed Akhil to press it at 1 a.m. night. His room will reach inside the blue  hexagon. There on the display screen of the hexagon , the name of planets are given. He should select the name of earth and  sub place as India , and then the name of his city. And press the start button. Within a blink of an eye, he will be on earth.

Akhil waited eagerly for midnight. At 1 a.m. he pressed the star on silver plate Wizzzzzzzzzzzz  wooooooooo  wizzzzzzzz  and the room circled and become silent. He  looked out of window , Ohh, he was inside  the small blue hexagon. He feeded all details and pressed the start button. Zooooooooooommm  and he was back in his house. He could hear the voices of his family members who were trying to open the door of his room. He shrinked the blue hexagon which was looking like a shining jewel. He kept both the hexagon and silver plate in showcase. Aha! , back in my room, Akhil was feeling relaxed and happy. He looked in the mirror, and  remembered about the mask, he put the mask and pressed the button. His face was back to normal again, but a pink mark was there under his left ear , an only rememberance on his body of the journey  to venus. He smiled and opened the door.






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" अचानक " - A story ( 1st Part )


आज फिर बस छूट जायेगी, सोचते हुए विनय ने माँ के हाथ से खाने का टिफ़िन लिया, टोस्ट के आखिरी टुकड़े को चाय की सहायता से निगला और जल्दी जल्दी जूतों के फीते बांधते हुए घर से निकला। दालान में अखबार पढ़ते पिताजी जोर से बोले कितनी बार कहा रात को जल्दी सोया कर.ना रात को जल्दी सोते हैं न सुबह उठते हैं, न जाने आज कल के बच्चे इतने अव्यवस्थित क्यों हैं.
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मन में आया रुक कर जवाब दे, कि नयी नयी नौकरी है, प्रोजेक्ट ३ दिन में कम्पलीट करना है, पर पहले से ही लेट होने की वजह से बिना कुछ कहे बस स्टॉप की और भागा। ये तो अच्छा है की घर सबसे पहले वाली लाइन में है, जो एक मोड़ मुड़ते ही सीधे मेन रोड पर आ जाते हैं. शुक्र है बस नहीं आई कुछ देर बाकी खड़े लोगों पर . नज़र डाली, वही, सुबह 9 बजे वाली बस से जाने वाले लोग, 2 -4 स्कूल के बच्चे. एक वयस्क महिला और उनके साथ एक लड़की. पीले रंग के शलवार कमीज और कंधे तक बाल , सांवली रंग लम्बी काया , साधरण सी थी, पर एकदम सपाट चेहरा, न मुस्कान न कोई और भाव. उतनी ही खामोश उसकी बड़ी बड़ी आँखें। न जाने क्यों बार बार उस पर ही ध्यान चला जाता था.
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बस आते ही सबसे पहले वो अपनी साथ वाली वयस्क महिला के साथ बस में चढ़ी और आगे की तरफ खिड़की के पास बैठ गयी। विनय भी बिलकुल उसके पीछे वाली सीट पर जा कर बैठ गया। बस चलती जा रही थी पर ना लड़की कुछ बोली न महिला. 5 स्टॉप बाद दोनों ने एक दुसरे को आँखों आँखों में देखा और बस अगले स्टॉप पर उत्तर गयीं.
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रात तक विनय उस पीले कुरते वाली लड़की के बारे में सोच रहा था. दुसरे दिन न जान कैसे जल्दी उठ गया। और 5 मिनट पहले ही स्टॉप पर पहुँच गाय. आज लड़की नीली जीन्स और सफ़ेद कुर्ते में थि. पर वही खामोश लेहजा. आज भी उसी स्टॉप पर चुपचाप उत्तर गयी दोनों। ये सिलसिला एक हफ्ते तक चलता रहा.
एक हफ्ते तक सिर्फ लड़की के कपड़ों के रंग बदले, पर उसके चेहरे के भाव वही के वही और उसी बस स्टॉप पर उतरती रही।
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रविवार ऑफिस की छुट्टी थी बाकि सारे काम में पूरा दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला। सोमवार को बस स्टॉप पर सबसे पहले वही खड़ा थ. बहुत देर तक इधर उधर देखने के बाद भी , बाकी जाने वाले सभी लोग दिखने लगे पर लड़की और महला नज़र नहीं आई. बस भी आ गयी. आज पहली बार उसने सबसे पहले आने के बावजूद बस नहीं पकड़ी . शायद देर हो गयी होगि।और अगली बस का इंतज़ार करने लगा। पर अगली बस के आने तक भी वो नहीं आई.
उस के बाद 1 महीने तक वो रोज़ उसी समय ऑफिस जाता रहा पर वो लड़की फिर नज़र नहीं आई. न जाने कौन थी. , जिसे न वो जानता था, न नाम, पता ठिकाना मालूम फिर भी जैसे रोज़ बस स्टॉप पर अनजाने मे उसका इंतज़ार करता था ...
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उस बस वाली लड़की को देखे हुए 3 महीने बीत गए थे. आज ऑफिस में काम काम था, खिड़की के बाहर देखते हुए चाय पी रहा था, की ऑफिस का एजेंट सुनील एक फाइल ले कर आया। किसी केस की फाइल थी।
सुनील ने बोला, की एक लड़की का इन्शुरन्स क्लेम है. 24 साल की लड़की का केस है जिसकी डेंगू से मौत हुयी है . , इन्शुरन्स 8 महीने पहले कराया था, और 10 लाख का क्लेम है। विनय ने पुछा मुश्किल क्या है. सुनील की बात सुनते- सुनते फाइल उठायी और खोला, किसी प्रिया नाम की लड़की की फाइल थी, जिसका 8 महीने पहले इन्शुरन्स हुआ था और 6 महीने बाद ही क्लेम आ गया थ. डेथ सर्टिफिकेट और मेडिकल रिपोर्ट भी थी।
उसने प्रश्नवाचक नज़र से सुनील से पुछा, की इन्क्वारी कर ली की सारे पेपर्स सही हैं. सुनील ने कहा की पेपर्स तो सही लग रहे, लेकिन जिस लड़की का इन्सुरेंस किया था वो अच्छी भली थी, अचानक कैसे मौत हो गयी.
विनय ने पूछा की उसका इन्शुरन्स किसने किया था।
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सुनील ने कहा की सर ये लड़की और इसकी माँ खुद आये थे ऑफिस मैं , कि इन्शुरन्स करना है, तो मैंने कर दिया था। विनय सोच में पड़ गया मतलब ये की कोई पहचान नहीं थी खुद आ कर इन्शुरन्स करवाया और 8 महीने में क्लेम। पर डेंगू तो कभी भी अचानक हो सकता है किसी को भी। विनय ने सुनील से पुछा क्लेम लेने कौन आया है. सुनील ने कहा की सर, उसकी माँ करुणा आई है , बाहर बैठी है। विनय ने करुणा जी को अंदर भेजने के लिए कहा और सारे पेपर्स फिर से पढ़ने लगा करुणा देवी ने जैसे ही अंदर आने की अनुमति मांगी, विनय चौंक गया. ये तो बस वाली महिला है. तो क्या वो लड़की प्रिया थी. हैरानी से उनको अंदर आने का कह कर , उसने इन्शुरन्स कॉपी का कवर पेज देखा, उसी लड़की की तस्वीर थी. अजीब मनोस्तिथि थी उसकी इस समय। जिस लड़की ने कई दिन तक उसकी सोच पर कब्ज़ा किया हुआ था, वो तस्वीर के रूप में सामने आएगी वो भी मृत्यु के बाद , ऐसा तो नहीं सोचा था
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अनमने मन से करुणा जी को बिठाया और शोक प्रकट किया, पर उनके चेहरे के भाव भी उनकी बेट की तरह सपाट थे , न जाने क्या था उन आँखों में, दुःख, दर्द या रहस्य. करुणा जी ने कहा, की देखिये मेरी बेटी की अकस्मात् निधन हो गया पर आपकी कंपनी अब पैसा नहीं दे रही, एक बेटी ही थी जो सब कुछ संभालती थी। मैं 2 महीने से आपके ऑफिस के चक्कर लगा रही हूँ, सारे कागज़ात भी दे दिए फिर भी मेरा क्लेम पास नहीं कर रहे. विनय ने खुद पर काबू पाते हुए पुछा की आपकी बेटी का आपने डेंगू का इलाज नहीं कराया । करुणा जी ने कहा की 3 महीने पहले उसको बुखार आया था, शुरू में साधारण बुखार समझते रहे, पर ठीक नहीं हुआ तो हॉस्पिटल ले कर गए पर डॉक्टर फिर भी नहीं बचा पाये। डेंगू बहुत फ़ैल रहा है ये तो सुन रहा था वो भी पर यूँ किसी की मौत से सामना पहली बार हो रहा था।
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पहली दृष्टि में डॉक्टर की रिपोर्ट और डेथ सर्टिफिकेट सब सही लग रहा था, करुणा जी को कहा कि क्लेम के अप्रूवल पर हक्ताक्षर मैनेजर के होंगे , जो अभी लंच पर गए हैं, आप को कुछ देर रुकना होगा। अचानक उसकी नज़र डेथ सर्टिफिकेट की तारीख पर गयी , 4 जून 2015 , उसे अच्छी तरह याद था 4 जून का दिन. उस दिन प्रिया ने गुलाबी और काला प्रिंट वाला कुरता पहना था और कुछ ज्यादा ही सुन्दर लग रही थी, उसको देखते रहने की वजह से वो कंडक्टर से अपने टिकट के दिए हुए 50 रुपये के बाकी के छुट्टे पैसे भी लेना भूल गया था। वो गुरूवार का दिन था, उसके बाद तो शुक्रवार और शनिवार को भी माँ बेटी बस में आई थी। झटका सा लगा उसको। ये क्या फ्रॉड केस है. गुस्सा और बेवक़ूफ़ बन जाने जैसा महसूस हुआ उसे। रोक नहीं सका खुद को और तेज आवाज़ में बोल पड़ा . " आप झूठ बोल रही है, जो तारिख आपकी बेटी के डेथ सर्टिफिकेट में लिखी है, उस दिन तो आपको और आपकी बेटी को मैंने 27 नंबर की बस में मीना चौक से बस ले कर , राज नगर स्टॉप पर उतारते हुए देखा है, एक हफ्ते तक आप दोनों रोज़ एक ही बस से मीना चौक से राज नगर तक गयी हैं. मैं खुद उस बस में था।
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अब चौकने की बारी करुणा जी की थी, पर गज़ब का संतुलन था उनके अंदर, मौके को भांप कर वो तुरंत उठी और बिना रुके सीधे बाहर निकलती चली गयी। विनय लपक कर उनके पीछे भागा , पर 6 माले की कमर्शियल बिल्डिंग मैं , कितने ऑफिस थे , न जाने कहाँ गायब हो गयी करुणा। वापस आकर फिर से अपनी कुर्सी पर बैठा, तो उसको कुछ समझ मैं नहीं आ रहा थ. दुःख, झूठ और ठगे जाने के एहसास से मन व्याकुल हो उठा. क्या- क्या करते हैं लोग पैसे के लिए. लेकिन माँ बेटी शकल से ऐसी तो नहीं लगती थी, फिर ऐसा क्यों किया होगा. फ्रॉड के केस में जेल भिजवा सकता था। पर उसने किसी से कुछ नहीं कहा विनय ने फाइल उठाई और उसमे से उनका एड्रेस नोट कर लिया। इस केस को उसे खुद ही थोड़ी छान बीन करनी होगी, इससे पहले की केस मैनेजर तक पहुंचे.
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' अचानक " - A story - Part 2 

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शनिवार को ऑफिस से ठीक 5 बजे निकला और नोट किये हुए पते पर पहुंचा। आदर्श नगर , बी -ब्लॉक , मकान संख्या 45 . थोड़ा पुराना दो मंजिला मकान था। 2 बार घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला और एक औरत आई , पीछे पीछे एक बच्चा . जी कौन चाहिए ? उसके झुंझलाए चेहरे को देख कर आधा मंन खराब हो गया फिर भी पुछा , प्रिया चौहान से मिलना है. यही नाम लिखा था उस लड़की का फाइल में.
औरत ने और ज्यादा गुस्से में उसे देखा और कहा, चली गयी यहाँ से. आखिरी महीने का किराया भी नहीं दे कर गये. गुस्से मैं औरत दरवाजा बंद करने लगी।
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विनय ने हिम्मत कर के कहा की मुझे उसके बारे मैं कुछ जानना है. औरत और ज्यादा आग बबूला हो गयी. " क्यों जानना है, मुझे कुछ नहीं पता , गलती मेरी ही थी जो ऐसे किसी अनजान को घर किराए पर दे दिया उसका 3 हज़ार क्या तुम भरोगे " विनय का मन तो नहीं था की एक भी पैसा दे, पर उत्सुकतावश उसने कह दिया ठीक है मैं दे दूंगा पर उसे प्रिया के बारे मैं पूरी जानकारी चाहिए। 3 हज़ार मिलने की आशा से औरत के व्यवहार में थोड़ा बदलाव आया, फिर उसने विनय को अंदर बुलाया और सामने रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया.
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विनय बोला विस्तार से बताइये, कब आये, कितने दिन रहे , कौन लोग थे ? औरत फिर भी चुप रही। कमरे की हालत बता रही थी, ज्यादा अच्छे हालात नहीं थे। दीवारों पर पुराना पेंट और जगह जगह बनी हुयी कलाकृतिया जो शायद उस छोटे बच्चे ने अपनी पेंसिल से बनायी थी। 3 कुर्सी और एक दीवान. रसोई मैं जोर से कूकर की सीटी बजी। समझ गया विनय बिना 3 हज़ार लिए ये कुछ नहीं बताएगी। जेब से 3 हज़ार निकाल पर टेबल पर रख दिए। औरत ने जल्दी से पैस उठाये और बच्चे को बाहर खेलने भेज दिया. और खुद भी एक कुर्सी पर बैठ गयी
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मेरा नाम कला है. मेरे पति कम्पाउण्डर हैं पास के एक डॉक्टर के क्लिनिक पर काम करते हैं. ऊपर का हिस्सा खाली है तो किराए पर दे देते हैं. वैसे तो हर किसी को नहीं देते. पर ये लड़की 1 साल पहले आई थी अपने माँ- और बाप के साथ, बाप बीमार था, इलाज के लिए आये थे, तो तरस खा कर मैंने दे दिया। पर लड़की शायद कहीं बाहर नौकरी करती थी, महीने मैं 1 या 2 बार आती थीं . माँ बाप ही रहते थे. शुरू में किराया ठीक से दे रहे थे पर पिछले महीने बहुत देर से दिया और इस महीने का तो दिया ही नहीं। 1 हफ्ते पहले बाप की तबियत ज्यादा ख़राब होने लगी थी तो उसको किसी हॉस्पिटल में एडमिट किया था। बोल रही थी ऑपरेशन होना है. उस दिन बाप को हॉस्पिटल ले कर गयी माँ बेटी उस के बाद आई ही नहीं लौट कर. । हॉस्पिटल ले जाने के दिन से 1 हफ्ता हो गया कोई अता - पता नहीं ।
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विनय ने पुछा की क्या वो कमरा देख सकता है ऊपर का, कला के हाँ कहने पर विनय ऊपर गया , कमरे मैं कुछ ख़ास सामन नहीं था. 1 पुराना पलंग. कोने में मोड़ कर रखा हुआ एक फोल्डिंग बेड। अलमारी में थोड़े कपडे और रसोई में भी बस कुछ जरूरी बर्तन। ज्यादा कुछ मालूम नहीं हो सका सिवा इसके कि लड़की के पिता को किसी हॉस्पिटल में एडमिट किया था और लड़की बाहर नौकरी करती थी।
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सोमवार को जब ऑफिस पहुंचा तो मैनेजर ने सीधे पूछ लिया ये प्रिया चौहान का क्या केस है सुनील बता रहा था। छुपाने से उसको कुछ हासिल नहीं होना था, और उसकी नौकरी पर भी बात आ जाती झूठे केस को छुपाने की वजह से. मजबूरन उसे मैनेजर को पूरी बात बता दी। सुनकर मैनेजर भी हैरान हो गया और पुलिस को इन्फॉर्म कर दिया. इंस्पेक्टर अमर को उसने अब तक जो भी कुछ पता था सब बता दिया।
4 दिन बाद इंस्पेक्टर ऑफिस में मैनेजर से मिलने आया तो मैनेजर ने विनय को भी कमरे में बुलवा लिया. इंस्पेक्टर ने जो कुछ भी बताया वो और हैरान करने वाला था
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जो कुछ तफ्तीश में बाहर आया वो ये कि प्रिया चौहान के पिताजी दीपक चौहान को धर्मशीला कैंसर हॉस्पिटल में एडमिट करवाया गया था , उनका कैंसर लास्ट स्टेज पर पहुँच चूका था, ऑपरेशन होना था, पर डॉक्टर और ऑपरेशन की फीस नहीं जमा करवाई , जिसकी वजह से ऑपरेशन भी नहीं हुआ और उनकी मौत हो गयी. वो लोग डैड बॉडी को ले कर वहां से जा चुके हैं. हॉस्पिटल के रजिस्टर में जो पता है वो उसी आदर्श नगर वाले मकान का है. मतलब की कहानी घूम फिर के वहीँ की वहीं.
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जाने कितने केस ऐसे पुलिस की फ़ाइलों में बंद हो जाते हैं। मैनेजर ने सबको सख्त निर्देश दिए की इन्शुरन्स करने से पहले और ज्यादा सावधानी बर्तें। सुनील बोला, सर पूरे पेपर्स दिए थे लड़की ने यहाँ तक की लड़की का पैन कार्ड की ज़ेरॉक्स भी है. पर पैन कार्ड में एड्रेस प्रूफ तो कुछ नहीं होता मनगेर बोला , एड्रेस तो किराए के मकान का दिया, जहाँ पर अब नहीं रहती। कुछ दिन तक प्रिया चौहान केस सबकी जुबान पर रहा फिर धीरे धीरे सब व्यस्त हो गए।
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अगले महीने अक्टूबर में ऑफिस में नया प्रोजेक्ट आया की हर एजेंट को एडिशनल 10 बीमा पालिसी करनी है, और जो कर लेगा उसको एडिशनल इन्शुरन्स पॉलिसीस पर 5 % ज्यादा कमीशन मिलेगा और जिस ब्रांच में सबसे ज्यादा पालिसी होंगी उस ब्रांच के मैनेजर और असिस्टेंट मैनेजर को माइक्रोवेव। विनय भी नए प्रोजेक्ट में लग गया, भाभी कब से माइक्रोवेव की कह रही हैं, अछका मौका है. सुनील बोला, विनय सर पास में एक गांव है तितर पुर वहां मेरे मामाजी स्कूल में प्रिंसिपल हैं उधर चलते हैं, उनसे बात की है मैंने , वहां कुछ शिक्षक के बीमे कर सकते हैं.
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सुनील का विचार बुरा नहीं था, ये सोच कर विनय और सुनील सुबह की बस से तितर पुर पहुंचे। छोटा सा गांव, 2 सरकारी स्कूल , कोई ख़ास विकास नही हुआ था. सुनील के मामाजी ने उन्हें सीधे स्कूल में बुलवा लिया की स्कूल की आधी छुट्टी में सभी शिक्षक को बुलवा लेंगे और जिन्हे जरूरत हो उनका बीमा किया जा सकेगा. आधी छुट्टी में अभी 1 घंटे का समय था . सुनील और विजय यूँही सभी कक्षा में पढ़ते हुए बच्चों को देख रहे थे. अचानक एक कक्षा के सामने से गुज़रते हुए विनय वहीँ खड़ा की खड़ा रह गया. प्रिया चौहान कक्षा में बच्चों को पढ़ा रही थी। विनय मन में बोला , इस लड़की के पीछे हम सब बावले हो गए , ये यहाँ छुपी हुयी है। तभी स्कूल का चपरासी गुज़रा जो कि उनके लिए चाय लेकर आ रहा था और विनय को ऐसे घूरते हुए देख कर पुछा , " क्या देख रहे हैं सर "
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विनय की तन्द्रा भांग हुयी, ये टीचर प्रिया चौहान है ना विनय ने चपरासी से पुछा । चपरासी बोला, नहीं नहीं सर इनका नाम तो कविता चौधरी है और ये यहाँ के पुराने प्रिंसिपल जो रिटायर हो गए हैं उनकी बेटी है। इतने मैं सुनील भी वहां आ गया और वो भी उतना ही हैरान. वही लड़की हु बहु पर ये कैसे हो सकता है. चपरासी के साथ सुनील के मामाजी के ऑफिस में पहुंचे। मामाजी को पूरा किस्सा बयान किया मामाजी भी बोल उठे बड़ी दिलचस्प बात है, लेकिन कविता चौधरी को तो हम बहुत साल से जानते हैं, यहाँ के पुराने प्रिंसिपल की बेटी हैं, 4 साल से स्कूल में पढ़ा रही हैं, बहुत ही रेगुलर और अच्छी शिक्षक हैं। विनय ने अचंभित हो कर कहा , लेकिन जून महीन में मैंने इन्हे दिल्ली मैं देखा था. इन्होने स्कूल से अवश्य छुट्टी ली होगी। मामाजी बोले जून महीने में तो सभी स्कूल की छुट्टियां होती हैं। जून महीने मैं स्कूल बंद होने से नहीं मिल सकता अब दूसरा वक्त वो था जब प्रिया चौहान इंसोरेंस करवाने आई थी. सुनील ने कहा की वो फरबरी महीने में इन्शुरन्स करवाने आई थी। 14 फरबरी थी शायद।
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विनय के आग्रह करने पर कविता चौधरी का अटेंडेंस रजिस्टर चेक किया गया हर दिन बराबर आती रही थी वो. 13 - 14 - 15 फरबरी को स्कूल की छुट्टी थी . 13 फरबरी को किसी टीचर के मरने की वजह से अवकाश घोषित किया गया था और 14 फरबरी को सेकंड सैटरडे की छुट्टी थी , 15 का संडे था। यानि की इस बात से भी ये सिद्ध नहीं हो पा रहा था की ये प्रिया चौहान है. अगर ये लड़की जो हु बहु प्रिया चौहान की हम शक्ल है , सच में कविता चौधरी है…तो फिर प्रिया चौहान कौन है और उसका कविता चौधरी से क्या कोई रिश्ता है ? पैन कार्ड है त्तो प्रिया चौहान भी होगी , पर कहाँ ?
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सुनील के मामाजी ने बताया की पुराने प्रिंसिपल साहब की ये ही एक बेटी है और एक बेटा है जो दसवी में पढता है। प्रिंसिपल साहब एकदम तंदुरुस्त हैं और भले चंगे हैं रहस्य और गहरा हो चला था। आधी छुट्टी में 4 - 5 शिक्षक को बीमा लेने के लिय राजी किया और क्या क्या कागज़ात जरूरी हैं , जिन्हे सब इकठे कर लें। बाकी की बीमा कार्यवाही 2 दिन के बाद करने के लिए आने की कह कर सुनील और विनय वापस आ गये. प्रिया चौहान की पहेली और उलझ गयी थी विनय के दिमाग में ?
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' अचानक " - Part 3
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तितर पुर से वापस आ कर विनय का दिमाग चक्कर खा रहा था। ऑफिस जाने का मन नहीं हुआ और फ़ोन करके ऑफिस से छुट्टी ले ली। दुबारा तितर पुर 2 दिन बाद जाना था . दुसरे दिन वो खुद पुलिस ठाणे गया इंस्पेक्टर अमर से मिलने और उन्हें बताया की तितर पर में उसने एक लकड़ी को देखा जो की हु बहु प्रिया मिलती है पर उसका नाम कविता चौधरी है. क्या प्रिया चौहान के बारे मैं कुछ और नहीं पता चला. इंस्पेक्टर अमर ने कहा की यहाँ तो कोई क्लू नहीं मिला था आपको पता ही है. पैन कार्ड पर भी एड्रेस नहीं है. सिर्फ एरिया लिखा है दिल्ली के पैन कार्ड इशू ऑफिस का। हाँ पर ऑफिस मैं शायद उनके रिकॉर्ड में पैन धारक का एड्रेस होगा. इंस्पेक्टर अमर ने अपने किसी पहचान वाले को फ़ोन मिलाया , और उसने 2 घंटे के बाद आने के लिए कहा। इंस्पेक्टर अमर और विनय पण कार्ड ऑफिस पहुंचे तो वहां से उन्हें एक पता मिला . सहारनपुर के चन्दर नगर का।
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इंस्पेक्टर ने कहा, क्यूंकि केस फिलहाल बंद हो चूका है वो ड्यूटी के समय सहारनपुर नहीं जा सकता , विनय को सहारनपुर अकेले ही जाना होगा। विनय ने ३ बजे की बस ले ली सहारनपुर की। सोचता जा रहा था रास्ते भर, केस बंद हो चूका है, फिर भी वो क्यों इस पहेली खोजने मैं लगा है. प्रिया उर्फ़ कविता की शकल उसकी आँखों के सामने आ जाती थी बार - बार. एक तरफ कहीं उस लड़की की तरफ वो आकर्षित भी है , दूसरी तरफ वो झूठी और जालसाज है। दिमाग में सही और गलत की कशमकश बढ़ती ही जा रही है.
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6 बजे सहारनपुर पहुंचा तो शाम का हल्का अँधेरा फैलने लगा था. अनजान शहर और वो अकेला चला आया था। १ घंटे के बाद वो चन्दर नगर के मकान नंबर 14 के सामने खड़ा था। घंटी बजाने ही जा की दरवाजे पर ताले ने उसके हाथ रोक दिए. हताश हो उठा, इतनी दूर से आया और बंद दरवाजा। बराबर के मकान स इ एक सज्जन बाहर निकल रहे थे। विनय को वहां खड़ा देखकर बोले, यहाँ कोई नहीं रहता . 1 साल से बंद है ये मकान। विनय ने उन सज्जन से पुछा, ये प्रिया चौहान का घर है. , मैं प्रिया का दोस्त हूँ, उससे मिलना चाहता हूँ, वो कहाँ मिलेगी। झूठ बोल रहा था विनय, जिससे उसको प्रिया के रहने की सही जगह मालूम पड़ सके. वो सज्जन विनय को आश्चर्य चिकित हो कर देखने लगे. प्रिया के दोस्त , कब मिले थे तुम प्रिया से ?
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विनय ने अचकचा कर जवाब दिया, 2 - 3 महीने पहले . वो सज्जन चुप खड़े विनय को देख रहे थे जैसे विनय कोई भूत हो. बताइये अंकल विनय ने आग्रह किया. प्रिया कहाँ मिलेगी मुझे अब, बहुत जरूरी काम है. वो सज्जन रुकी रुकी सी आवाज़ में बोले " मुझे समझ नहीं आ रहा प्रिया तुमसे कैसे मिल सकती है, प्रिया की तो मृत्यु हुए 2 साल हो चुका है । " क्या??____ विश्वास नहीं हुआ विनय को अपने कानो पर।अजीब कशमकश है। अब इन सज्जन को विनय क्या समझाए की ये सब क्या है, जबकि उसे ही कुछ समझ नहीं आ रहा।
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उन सज्जन की आँखों में तैरते सवालों का भी कोई जवाब तो देना होगा , ये सोचते हुए विनय बोला, माफ़ कीजिये अंकल, शायद मुझे ग़लतफहमी हुयी हो की वो प्रिया थी, एक शादीमें देखा था उसे, बात नहीं हो पायी, मुझे लगा की प्रिया ही है, तो मैं उससे मिलने आ गया ये जानने के लिए की वो मुझसे नाराज़ है क्या जो बात भी नहीं करती न कोई फ़ोन करती है। प्रिया के पडोसी को विनय की बात पर विश्वास तो नहीं हो रहा था पर उन्होंने फिर कुछ नहीं पुछा और ठीक है कह कर जाने लगे
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विनय ने उन्हें रोका , ठहरिये अंकल बस एक बात और बताइये की प्रिया के माँ या पिताजी कोई नहीं हैं यहां. इस सवाल पर सज्जन ने कहा की 2 साल पहले छत पर कपडे सुखाते समय पैर के फिसलने से छत से गिर गयी थी। बहुत चोट आई थी सर में, और किसी नस के फट जाने की वजह से उसकी मौत हो गयी थी। प्रिया की मौत के बाद उसके माँ और पिताजी अकेले ही रहते थे। 1 साल पहले उसके पिताजी को कैंसर के इलाज के लिए उसकी माँ दिल्ली ले गयीं थी. सुना है , की शायद कुछ दिन पहले उनका भी देहांत हो गया , पर अब प्रिया की माँ कहाँ हैं ये नहीं पता उन्हे.
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कमाल है , जिस प्रिया को वो ढूंढ रहा है, वो तो सच में ही इस दुनिया मैं नहीं है . तो , जून मैं उसने दिल्ली में जिसे देखा वो क्या कविता ही थी. इसका जवाब अब उसे या तो प्रिया की माँ या कविता ही दे सकती थी। एक बात तो सही थी इन सब बातों में की प्रिया के पिताजी का देहांत कुछ दिन पहले कैंसर से हुआ है. अब सवाल ये था की सहारनपुर की प्रिया और तितर पुर की कविता का आपस में क्या रिश्ता है. अगर कोई रिश्ता नहीं है तो दो लड़कियों की शकल इतनी कैसे मिल सकती है. और न ही मरी हुयी लड़की फिर से ज़िंदा हो कर आ सकती है और इन्शुरन्स करवा कर फिर से मर गयी. प्रिया की माँ का तो कुछ पता नहीं, अब कविता से ही सीधे बात करनी होगी 
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" अचानक " - A story - ( Part 4- Final )

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दूसरा दिन इसी दिमागी उथल पुथल मैं बीता। अगले दिन सुनील से ज्यादा जल्दी विनय को थी तितर पुर जाने की। तितर पुर पहुँच कर सुनील स्कूल गया बीमा करने और विनय कविता से मिलने से पहले उसकी कक्षा के बाहर। आसमानी रंग का कुरता, बालों को हल्का सा घुमा कर बना हुआ जूड़ा , नाक में छोटी सी सोने की बाली। इतनी सादगी से भरी खूबसूरती देख कर विनय का दिल काबू में नहीं रह रहा था, बहुत देर तक विनय कविता को देखता रहा। कविता ने बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते दरवाजे पर आकर विनय से कहा, आप यहाँ क्यों खड़े हैं.. विनय के मुंह से निकल गया , जी आपको देख रहा था। गुस्से में तमतमा गयी कविता, अजीब बेशरम इंसान हैं आप। माफ़ कीजिये , दरअसल आपसे एक जरूरी बात करनी है. कविता ने कहा की मैं आपको जानती नहीं, तो क्यों आपसे बात क्यों करूँ। सारे बच्चे विनय और कविता को देखने लगे. उस समय विनय को वहां बात करना ठीक नहीं लगा और कहा, बात तो आपको करनी पड़ेगी, पर छुट्टी होने तक इंतज़ार करुंग. कविता ने उसकी बात अनसुनी कर के वापस कक्षा में चली गयी.
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छुट्टी होने मैं अभी काफी समय बाकी था , स्कूल से कविता के घर का पता निकलवा कर वो सीधे उसके घर चला गया. दरवाजा जिसने खोला , वह कविता की माँ लग रही थी चेहरे की बनावट से.
कौन हैं आप और क्या काम है, एक अजनबी को देख कर उन्होंने पुछा। कविता जी से मिलना है मुझे कहा विनय ने. लेकिन कविता तो अभी स्कूल में है. आप बाद में आइये जवाब आया। विनय ने सोचा कि अब उसे सीधे पूछना ही पड़ेगा । विनय बोला, क्या आप प्रिया चौहान को जानती हैं ? प्रिया--- का नाम सुनकर चोंक गयीं वो. उल्टा विनय से सवाल कर दिया, तुम प्रिया को कैसे जानते हो.
जी जानता हूँ उसी सिलसिले मैं आपसे बात करनी है विनय ने जवाब दिया. क्या मैं अंदर आ सकता हूँ जिससे की आपको पूरी बात बता सकूँ
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आइये कह कर कविता की माँ सीमा जी ने उससे अंदर आने दिया. रिटायर्ड प्रिंसिपल साहब का पसंद काफी अच्छी थी, सादा पर करीने से लगा सामान, दीवार पर रविंद्रनाथ टैगोर की पेंटिंग. कश्मीरी कालीन और गुलदान मैं सजे ताजे बगीचे के तोड़े हुए फूल। बैठते हुए विनय ने कहा की वो एक इन्शुरन्स कंपनी में काम करता है और प्रिया के इन्शुरन्स बीमे के सिलसिले मैं कविता से मिलने आया है. सीमा ने आस्चर्य प्रकट किया कि प्रिया की तो मौत हुए 2 साल हो गए हैं.. जी वो मुझे मालूम पड़ा, लेकिन हमारे यहाँ प्रिया कुछ 9 महीने पहले इन्शुरन्स करवाने आई थी। कहते हुए विनय ने इन्शुरन्स की फाइल दिखाई. अच्छा हुआ जो आज वो फाइल को साथ में लेकर आया था। ये तस्वीर प्रिया की है ना। विनय ने सीमा से पुछा हाँ तस्वीर तो प्रिया की ही है लेकिन ये कैसे हो सकता है.? सीमा अभी तक कुछ न समझ पाने की वजह से परेशान थी .
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तस्वीर वाली प्रिया और कविता मैं कुछ अंतर अब विनय को भी साफ़ नज़र आ रहे थे. प्रिया की नाक में कुछ नहीं पहना था , और उसके बाल भी छोटे कटे हुए थे। कविता का रंग सांवला था. , जबकि प्रिया का रंग ज्यादा साफ़ था.
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विनय ने सीमा जी से पूछा की आप मुझे ये बताइये की प्रिया आखिर है कौन ? आपसे उसका क्या रिश्ता है ? सीमा ने कहा कि प्रिया उनकी छोटी बहन की बेटी है , जो सहारनपुर में रहती थी , जिसकी 2 साल पहले छत्त से गिर कर मौत हो गयी थी . और अभी 1 महीने पहले उसके पिताजी भी कैंसर की बीमारी से चल बसे।
तो अब प्रिया की माँ, यानि आपकी बहन कहाँ हैं ? पुछा विनय ने।
देखिये कुछ पारिवारिक आपसी मनमुटाव की वजह से हम लोगो का एक दूसरों के घर में आना जाना नहीं है कविता से भी हमने मना किया हुआ था, पर वो अपनी बहन से बहुत प्यार करती थी और कभी कभी उन लोगो से मिलने सहारनपुर जाती थी। लेकिन हमे उन लोगो के बारें मैं ज्यादा कुछ नहीं बताती थी.
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पिछली बार कब गयी थी कविता सहारनपुर विनय ने पुछा। प्रिया की मौत के बाद उसका भी सहारनपुर जाना बंद हो गया था . बताया सीमा ने। लेकिन आप लोगो के मना करने पर भी कविता मिलने क्यों जाती थी। और कविता और प्रिया की शकल इतनी क्यों मिलती है। सीमा जी ने कहा की दर असल प्रिया भी मेरी ही बेटी थी, कविता और प्रिया जुड़वाँ बहने थी, पर मेरी बहन को कोई संतान नहीं थी तो बचपन मैं ही प्रिया को मैंने अपनी बहन को दे दिया था। फिर रिश्ते बिगड़ गए, आना जाना बंद हो गया, बड़े होने पर कविता को जब ये पता चला तो वो प्रिया से मिलने जाने लगी। पर उसके पिताजी बहुत सख्त हैं, इसलिए मैं नहीं गयी कभी मिलने।
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लेकिन प्रिया का इन्शुरन्स वाला क्या चक्कर था. विनय ने सीमा से पुछा क्या आपको प्रिया के इन्शुरन्स या उसके पिताजी का कैंसर का दिल्ली में इलाज चल रहा था, आदि कुछ पता था। सीमा ने कहा " इन्शुरन्स के बारे मैं मुझे कुछ नहीं पता, हाँ इलाज के बारे में कविता ने एक बार बताया था। वो कभी कभी दिल्ली भी जाती थी मिलने। विनय को अब काफी कुछ समझ में आने लगा था कि ये सब कविता ने किया था, पर वजह क्या थी इस के पीछे. बस अब वही कविता से जानना बाकी रह गया था।
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सीमा जी उसके लिए चाय बना कर ले आई, वो एक किताब के पन्ने पलटते पलटते कविता का इंतज़ार करने लगा। 3 बजे जब कविता घर आई और विनय को देखा तो गुस्से से फट पड़ी , पीछा करते करते घर तक चले आये। विनय ने कविता से कहा " बैठ जाइए मैडम, शांत हो जाइए,अभी तो आपसे बहुत कुछ जानना है " विनय ने मन में सोचा की सारी कहानी ही इस लड़की के पीछा करने से शुरू हुयी, अगर उस एक हफ्ते में उस लड़की पर ध्यान नहीं दिया होता था, तो ये कब का इन्शुरन्स क्लेम ले चुकी होती थी.
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प्रिया बेदिली से बैठ गयी, बोलो क्या काम है मुझसे, क्यों मेरा पीछा कर रहे हो ? विनय हंस कर बोला, पीछा तो मैंने प्रिया का करना शुरू किया था, पर प्रिया का करते करते मैं आप तक आ गया. प्रिया का नाम सुन कर कविता का चोकना स्वाभविक था। विनय ने उसके सामने इन्शुरन्स की फाइल रख दी, अब बताइये कविता जी, ये पूरा माजरा क्या है , सच सच बताइये ये प्रिया के नाम और उसके झूठे हस्ताक्षर कर के इन्शुरन्स बनवाने से लेकर क्लेम लेने की कोशिश तक की कहानी।
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ओह्ह --- तो वो आप हैं जिनकी वजह से क्लेम रुक गया और मौसाजी का ऑपरेशन नहीं हो पाया, आप ही उनकी मौत के जिम्मेदार है। इसी इन्शुरन्स के क्लेम के पैसे से हम उनका ऑपरेशन करवाने वाले थे। चोरी पपकडे जाने और दुःख का मिला जुला असर अब कविता के चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहे थे. " माफ़ी चाहता हूँ इस रूकावट के लिए , अगर ऐसा हुआ, मुझे बहुत अफ़सोस है लेकिन आपने गलत रास्ता चुना विनय बोला।। आपने ये पूरी प्लानिंग एक ऑपरेशन के लिए की थी, , अगर उस हफ्ते मैंने आपको बस में नहीं देखा होता तो मैं आप लोगो को नहीं पकड़ पाता. लेकिन उनका मकान भी तो था सहारनपुर में, वो क्यों नहीं बेच दिया अगर पैसे की इतनी जरूरत थी।
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कविता ने कहा की सहारनपुर का मकान की संपत्ति उनके मौसाजी के बाकी भाइयों की पुश्तैनी जयदाद है, और उसके हिस्से सभी में बराबर के होंगे, किसी एक का नहीं, हैं इसलिए वो नहीं बिक सकता था। प्रिया की मौत के बाद एक दिन मौसी जी का फ़ोन आया की मौसाजी बहुत बीमार हैं, वो मिलने गयी उसे पता चला की कैंसर का इलाज और ऑपरेशन के लिए बहुत पैसे चाहिए। इलाज करवाने के लिए ही मौसी और मौसाजी के लिए उसने आदर्श नगर में घर भी दिलवाया था . मौसी की मदद कोई नहीं कर रहा था। खुद उसके माँ और पिताजी भी नहीं करते। इसलिए उसने और मौसी जी ने मिलकर प्रिया के नाम से इन्शुरन्स बनवाने और क्लेम लेने का सोचा। प्रिया का पैन कार्ड और बाकी कागज़ात थे जो इस सिलसिले में काम आये। उन्होंने सोचा था की पैसा मिलने के बाद कोई नहीं जान सकेगा, प्रिया तो पहले ही नहीं थी, तो प्रिया के सामने आने का भी सवाल नहीं था
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विनय बोला, प्लान तो अच्छा था पर झूठे डेथ सर्टिफिकेट कैसे बनवाए . कविता ने कहा की राज नगर में बी. एम . सी . का ऑफिस था, वहां एक लड़के से बात करके झूठा डेथ सर्टिफिकेट बनवाया , जिसके लिए उसे पूरे 5 हज़ार दिए , उस लड़के की ही पहचान के डॉक्टर से 7 हज़ार में बाकी के डॉक्टर के पर्चे बनवाए । इस सारे काम मैं एक हफ्ते का समय लगा। जिसके लिए उन्हें रोज़ आदर्श नगर वाले किराए के मकान से राज नगर जाना पड़ता था। और क्यूंकि आदर्श नगर से कोई भी सीधी बस राज नगर नहीं जाती थी, तो उन्हें मीना चौक पर बस बदलनी पड़ती थी। इसलिए विनय ने उन्हें बस में रोज़ आते जाते देख लिया था।
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खिन्न स्वर में अब कविता ने विनय से पुछा लेकिन आप हमे रोज़ देख क्यों रहे थे ? सवाल जितना अटपटा था, उसका जवाब देते नहीं बन रहा था विनय को । ऐसी स्तिथि मैं ये बात कहनी पड़ेगी ये भी नहीं सोचा था विनय ने। फिर भी सीधे कह दिया, आप मुझे अच्छी लग रहीं थी, इसलिए देख रहा था, फिर आप गायब हो गयीं और मिली तो इस तरह से। दोनों खामोश खड़े एक दुसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। काश कोई और समय इस बात को कहता, सोच रहा था विनय। कविता भी सोच रही थी की क्या कहे, खुश हो की दुखी हो।
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कुछ समय में विनय ने ही चुप्पी तोड़ी विनय ने कहा कविता से कहा कि अब क्या करना चाहती हैं आप. कविता बोली आपके ऊपर है , बात को यहीं खत्म कर दें. या फ़िर… .... असमजस मैं पड़ गया विनय, पसंद करता था कविता को पर झूठ और फरेब तो किया ही था, वजह चाहे कोई भी हो। विनय ने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा की ये बात बतानी पड़ेगी उसे पुलिस और ऑफिस में, बेहतर होगा आप खुद ही अपना गुनाह कबूल कर लें।
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जल्दी ही कविता की मौसी को उनके एक रिश्तेदार के घर से ढूंढ निकाला गया। सेशन कोर्ट ने कविता और उसकी मौसी को 1 साल की कैद और 10 हज़ार जुर्माना की सजा सुनाई. डॉक्टर को 3 साल की सजा और उसका लाइसेंस जब्त किया, बी. एम . सी के वार्ड बॉय को भी 3 साल की सजा सुनाई गयी। विनय ऑफिस में सबकी नज़रो मैं हीरो बन गया , पर कविता के जेल जाने से उसे दुःख था । कविता के जेल जाते समय विनय ने कविता से कहा, गलती तो बहुत बड़ी की तुमने, पर फिर भी मैं तुम्हे, माफ़ करता हूँ ,1 साल बाद तुम्हे लेने मैं ही आऊंगा , तुम्हारा इंतज़ार करूँगा , जेल जाते जाते कविता धीरे से मुस्कुरा दी।

-- मंजरी -

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उठावनी ( हास्य व्यंग )


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मुकुन्दी लाल सिधार गये। आदमी जब तक ज़िंदा है तभी तक की माया है, उसके बाद तो आज मरा कल दूसरा दिन।
पूरा घर कमरे मैं इकठ्ठा हो गया। आज कौन सा वार है ,? सोमवार
तो उठावनी कब करेंगे. परसो होगी बुधवार को। खर्च कितना होगा।
भाई अखबार में छापना होगा, शमशान का सामन भी 10 - 12 हज़ार से काम नहीं आयेगा पंडित , हवन, दान दक्षिणा , तेरवी का खाना सब मिलकर 40 - 50 हज़ार तो लगेंगे।
तो क्या सारे पैसे मैं ही लगाउंगा. चलो सब 10 - 10 हज़ार दो
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कितने लोगो का होगा। हिसाब लगाओ किस किस को बुलाना है। एक कॉपी और पेन ला कर लिस्ट बनाओ अपने शहर के कितने लोग हैं और बाहर के आने वाले कितने हैं।
बाहर के आने वाले लोगो के ठहरने खाने का इन्तेजाम भी करना होगा
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सबको फ़ोन किया की नहीं , अरे ऐसे कैसे चलेगा, मिलकर काम बाटों , एक जना सबको फ़ोन करो, एक जना अखबार के दफ्तार जाओ , खबर छपवाने। अरे फोटो लिया की नहीं।
एल्बम निकालो, ये फोटो ठीक नहीं है, ये भी कहाँ ठीक है, वो वाला देखो छगन की शादी वाला , हाँ ये ठीक है . पर आजु बाजू मैं छगन और उसकी मेहरारू है. हाँ तो काट दो बीच मैं से, बस बाबूजी की फोटो अलग कर लो।
जा रे छोटे तू ये फोटो ले के अखबार के दफ्तर जा।
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अखबार का दफ्तर - एक खबर छपवानी है ,
क्या ?
बाबूजी की उठावनी की।
कितनी बड़ी छपनी है
आधे पेज का कितना होगा
पूरे10 हजार
अच्छा तो इससे छोटा ये वाला
ये 4 हज़ार में है
अरे भैया बहुत खर्च हो रहा है वो कोने मैं छोटा वाला का कितना होगा
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ये 1 हज़ार में हो जाएगा. ठीक है
फोटो लाये हो। हाँ ये रही
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कैसी फोटो लाये हो और अच्छी फोटो नहीं थी क्या , एक फोटो तो ढंग की खिंचवा के रखते
अब ऐसी ही है ये ही डाल दो
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ये ले रे, इसको छापने डाल दे , उधर कोने में वो भोलू की भैंस खोयी है न उसके नीचे वाले चौखाने मैं.
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घर पर मची है अफरा तफरी, चादर, दरी, राशन पानी, इंतजामात चल रहे.
खाने के आइटम क्या क्या रखे हैं तेरवी में. ये देख लो लिस्ट में लिखा है. हलवाई कौनसा बुलाओगे.
पप्पन को बुलवा लेंगे उसके हाथ मैं स्वाद है.
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खबर हो गयी सबको. .... हाँ
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सुनो जी , वो चाचा जी की उठावनी मैं, ये साडी पहन लूँ क्या। नहीं नहीं लोग क्या कहेंगे , थोड़ी हलके रंग की अच्छी साडी पहन ले
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हेलो , यार मैं कल किट्टी पार्टी मैं नहीं आ पाउंगी, मेरे मामा ससुर एक्सपायर हो गये. अरे , तेरे बिना मजा नहीं आएगा, एक काम कर ना, उठावनी तो 5 बजे शाम को है, लंच के बाद मैं तुझे घर ड्राप कर दूंगी। हाँ ये ठीक है
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श्याम तू कितने बजे पहुंचेगा , देख मोहन , मुझे माल खरीदने गंज जाना है, लौटते मैं उधर आ जाऊँगा
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शाम 5 बजे - उठावनी
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हमे बहुत खेद है की बाबूजी का साया हमारे सर से हमेशा के लिए उठ गया
बाबूजी। …बाबूजी तुम क्यों चले गए। .
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तूने उसके हाथ की चूड़िया देखि, एकदम नए डिजाइन की हैं हाँ अगली बार मैं भी ऐसी ही बनवाउंगी
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खाना बना कर आई क्या, नहीं अब जा कर बनाउंगी, आज यहाँ आने के चक्कर मैं देर हो जाएगा. जल्दी बैठक खत्म हो तो जाएँ
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ये पड़ोस वाली सीमा है न, हाँ, कितनी मोटी हो गयी है। इसकी सास 2 साल पहले मर गयी, अब इसका ही राज है ना
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और मनोज बाबू काम काज कैसा चल रहा, बस धीरज जी आपकी दुआ है , एक आर्डर है नया, कल आपको कितने पीस चाहिए वो बता दूंगा
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राम राम राम राम
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बहुत बुरा हुआ , अरे काहे का बुरा , लड़को को एक पैसा ज्यादा नहीं खर्च करने देता था अब सब अपनी मर्जी से जियेंगे।
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तेरहवी कब की है, अगले शुक्रवार की , तुम आओगी क्या , हाँ आएंगे ना , सुना है पप्पन हलवाई किया है, मुझे तो अभी से गुलाब जामुन याद आ रहे हैं , बच्चों ने भी बहुत दिन से दावत नहीं खाई।
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ठीक है चलो फिर मैं भी आ जाउंगी ,शुक्रवार को मिलेंगे।
राम- राम
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--- मंजरी -




पेज नंबर 14 
   
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लॉयर्स कॉलोनी के पीछे नाले के पार झुग्गी झपड़ियों में छोटे छोटे बल्ब टिमटिमा रहे थे. इन घरों में ज्यादातर औरतें भीख मांगती थी , बच्चे कचरे में से कागज़ बीन कर लाते थे और फिर उन्हें रद्दी वाले को बेच देते थे. ज्यादातर बच्चे पढ़ना लिखना नहीं जानते थे। मनोज और जोगी भी इन्ही बच्चों में से थे. सही सही उम्र तो उन्हें भी नहीं मालूम थी अपनी, पर शायद दोनों 16 या 17 बरस के थे. आस पास के बाज़ार और रिहाइशी इलाकों से कचरा बीनते बीनते और साइन बोर्ड पढ़ते पढ़ते दो चार अक्षर समझ लेते थे.
मनोज और जोगी आज के इकट्ठे किये हुए कागज़ों को सीधे कर के एक तेह बना रहे थे. की कुछ कागज़ों के बीच में से एक छोटा , डायरी का पेज गिरा. मनोज ने उसे उठा कर देखा तो उसपे धुंधले हो चुके अक्षरो के बीच लिखा था "प्लीज हेल्प " और फिर लॉयर्स कॉलोनी के किसी बंगले का पता था. .. कागज़ पुराना हो जाने से कुछ अक्षर मिट से गए थे और बंगले का नंबर तो बिलकुल ही गायब हो चूका था। जोगी बोला फेंक इस कागज़ को इसका कुछ नहीं मिलेगा, आधा गल गया है।
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मनोज फिर भी ध्यान से देखते हुए बोला, इसपर कोई मदद मांग रहा है. जोगी हँसता हुआ बोला, पागल हो गया है तू , कौन मदद मांगेगा हमसे, और फिर ये तो इतना पुराना कागज़ है, अब तक तो मदद मांगने वाला भी ऊपर पहुँच गया होगा. मनोज ने फिर भी न जाने क्यों वो कागज़ फेंका नहीं और अपने हाफ पेंट की पॉकेट में रख लिया। रात को सोते समय फिर से मनोज ने अपनी जेब से वो कागज़ निकला और ध्यान से देखा। लॉयर्स कॉलोनी तो पास में ही थी, पर बंगले का नंबर मिट चुका था. कागज़ को उसने जेब से निकाल के अपने बक्से में रख दिया. उसके बक्से में , कचरे में से इकठे किये हुए , कुछ अच्छे पेन , एक घडी , काली टोपी , और पुराने आधे बचे हुए क्रीम के ट्यूब , जो कभी कभी वो लगा लेता था.
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कई बार कचरा बीनते बीनते वो कॉलोनी के पास चला जाता, घूम फिर कर उन सभी बंगलो को देखता , पर कागज़ पर लिखे पते वाला बांग्ला कौन सा होगा, क्या पता ? । एक दिन वो ऐसे ही कॉलोनी में घूम रहा था, 12 बजे दोपहर की धुप तेज हो गयी थी. कॉलोनी के बीच में पार्क की बेंच पर बैठ कर बंगलों को देखने लगा. इनमे से वो कौन सा बंगला होगा। सोचते सोचते सो गया। नींद से जब जागा तो जोगी उसे जोर जोर से हिला रहा था." उठ कुम्भकरण, तू यहाँ सोया पड़ा है, मैं तुझे कहाँ कहाँ नहीं ढूंढ लिया. वो तो अपनी बस्ती की नीलू ने बताया की उसने तुझे कॉलोनी में आते देखा था" । मनोज अंगड़ाई ले कर उठ गया और फिर दोनों एक दुसरे को खींचते बाहर जाने लगे, कॉलोनी की सड़क पर एक बंगले के बाहर एक आदमी, और उसके साथ एक औरत हाथ में 4 साल के बच्चे का हाथ पकडे खड़ी थी. वो आदमी ड्राइवर को ज़ोर ज़ोर से डाँट रहा था, " गाडी की सफाई वाला आदमी नहीं आएगा तो क्या गाडी की सफाई नहीं होगी, वो लड़का नहीं आ रहा है तो कोई दूसरा लड़का ढूंढो , मुझे गाडी रोज़ चमचमाती हुयी चाहिए "
ड्राइवर चुपचाप जल्दी जल्दी गाडी साफ़ कर रहा था।


तभी उस आदमी की नज़र मनोज और जोगी पर पड़ी, तो उसने उन दोनों को रोक लिया. " ए लड़को इधर आओ, क्या काम करते हो , गाडी साफ़ करते हो क्या ? " मनोज और जोगी ने एक दुसरे को देखा, और ना मैं सर हिलाने ही वाले थे की आदमी फिर से बोला. " मेरी गाडी साफ़ कर दोगे तो महीने का 500 रूपये दूंगा , रोज़ सुबह 6 से 7 बजे के बीच गाडी साफ़ हो जानी चाहिए, करोगे क्या ? " 500 रूपये का नाम सुनकर मनोज की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, इससे पहले की जोगी कुछ कहता मनोज ने जल्दी से आगे आ कर कहा की हाँ साहब कर दूंगा। आदमी ने मनोज को कहा, की ठीक है कल से ही आ जाना, अभी जल्दी में हुँ, बाकी बातें कल करूँगा। पर थोड़े साफ़ कपडे पहन कर आना, कितने गंदे रहते हो, आदमी ने मुंह बनाते हुए कहा. . मनोज को उस आदमी का बुरा मुंह बनाते देख गुस्सा तो आया, पर 1 घण्टे रोज़ काम करके, महीने में 500 रूपये मिल जाएंगे, उसे ये सौदा बढ़िया लगा. गाडी साफ़ करके अपना हमेशा का काम भी कर लेगा.
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दुसरे दिन सुबह सुबह मनोज समय से गाडी साफ़ करने पहुँच गया. बंगले का मैन गेट पर नेम प्लेट में लिखा था, " अशोक सदन" मैन गेट खोल कर अंदर पहुंचा तो अशोक साहब लॉन में टहल रहे थे, उसको देखकर पुछा क्या नाम है तुम्हारा और कहाँ रहते हो. मनोज ने बताया की लॉयर्स कॉलोनी के पीछे नाले के पार की झोपडी में रहता है। अशोक ने उसे कहा की गाडी साफ़ करने का सारा सामान, लॉन के पास बने छोटे कमरे में रहता है . और इसके आलावा वो घर के अंदर कभी नहीं आएगा. सिर्फ उस कमरे में से ही सारा सामान लेगा और वापस वही रख देगा. मनोज ने देखा की छोटे कमरे में गाडी साफ़ करने का, और बागीचे के काम में आने वाले सामान ही था बस वहां।
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गाडी साफ़ करते करते मनोज को 2 महीने हो गए। आराम से काम चल रहा था उसका, सुबह गाडी साफ़ करना और फिर रद्दी कागज़ इकठे करना। २ महीने में उसे इतना पता चल चुका था की अशोक साहब की मैडम का नाम सीमा था. और उनके 4 साल के बच्चे का नाम अमित। बहोत प्यारा बच्चा है. सुबह तो सिर्फ उससे अशोक साहब ही दीखते थे, लॉन में टहलते पर महीने की 3 तारीख को पगार साहब शाम को ही दते थे, उस समय बच्चा कई बार अपनी छोटी साइकिल चला रहा होता था। उस बच्चे को देखकर वो हमेशा सोचता काश उसका बचपन भी ऐसा गुज़रा होता. 

आज फिर 3 तारीख है और उसे पगार मिलनी थी, वो जल्दी जल्दी बंगले में पहुंचा। आज अशोक साहब घर पर नहीं थे. सीमा मैडम ने उसे 500 रूपये दिए और कहा की साहब शहर से बाहर गए हैं. बच्चा आज खेलने की बजाये बहुत ज़ोर ज़ोर से रो रहा था. मनोज जाने लगा तो सीमा ने उसे रोक कर कहा , सुनो मुझे कुछ सामान मंगवाना है, तुम लाकर दे दोगे क्या ? मनोज के हाँ कहने पर सीमा ने टेबल पर से एक डायरी का पेज फाड़ा और उसमे बच्चे के लिए कुछ सामान लिख कर उसे कॉलोनी के बाहर वाले केमिस्ट से लाने को कहा। मनोज ने सीमा से पेज लिया और बाहर आ गया. पेज को उसने देखा तो वहीँ का वहीँ ठहर गया. ये पेज हूबहू उसी तरह का पेज था, जो डायरी का पेज उसने अपने बक्से में रखा था, फर्क सिर्फ इतना था की ये पग साफ़ था, वो पेज पुराना और गन्दा हो गया था, पर पेज के ऊपर बना हुआ फूल का निशान भी बिलकुल वही था. इस पेज का नंबर 34 था. सीमा को सामन लाकर देने के बाद वो घर गया। और बक्से मैं से फिर से वो पेज निकला, उसका अनुमान बिलकुल सही था, दोनों पेज एक ही तरह के थे. इस पेज का नंबर 14 था. 


रात को भी सोते सोते मनोज सोच रहा था, की क्या दोनों पेज एक ही डायरी के हैं, लेकिन एक पेज इतना पुराना क्यों है। दूसरी बात ये भी कि अशोक सर और सीमा मैडम दोनों ही खुश थे, बच्चा भी कितना प्यारा है तो मदद कौन मांग रहा ? शायद जोगी सही कह रहा है, वो कुछ ज्यादा ही सोच रहा है. सुबह , गाडी साफ़ करते करते, फिर भी दिमाग पेज पर ही अटका हुआ था उसका, की गलती से गाड़ी का डैशबोर्ड खुल गया, और उसमे से उसी तरह के कुछ और पेज गिरे। वो उन पेज को उठाने लगा, और नंबर देखने लगा, हर पेज पर कुछ न कुछ लिखा हुआ था, अलग अलग नंबर के पेज थे, और पेज नंबर 14 भी था. लिखा क्या था ये तो वो नहीं पढ़ सका पर ये बात तो यकीन से कह सकता था की जो पेज उसके पास था, वो किसी और ही डायरी का था. 

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6 महीने काम करते हो गए थे उसे, अब कभी कभी वो बच्चे के साथ खेल भी लेता था, पहले जितनी सख्ती नहीं थी उस पर . , फिर भी उसकी पहुँच अभी भी घर के अंदर तक नहीं हुयी थी। एक दिन सीमा मैडम ने उसे कहा की दिवाली के पहले सफाई करवानी है इसलिए उसको पूरे दिन घर पर रहना होगा और सफाई करनी होगी. पहली बार मनोज को घर के अंदर जाने का मौका मिलेगा, सोच कर बहुत उत्साहित हो उठा। दुसरे दिन पूरे घर की सफाई, मनोज, ड्राइवर और एक कामवाली लड़की ने मिलकर की। पर घर में उसे ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया। आखिरी में स्टोर खोला। कामवाली लड़की बीच में ही बहाना कर के घर चली गयी थी. ड्राइवर भी थका हुआ बैठा था, मनोज धीरे धीरे सारा समान वयवस्थित करने लगा. सीमा मैडम ने मनोज को कहा की सारे पुराने कागज़ , रद्दी में देना है, और बाकी सब निकाल कर बाहर फेंक देना। सीमा मैडम ने और भी पुराना सामान , कपडे , जूते इत्यादि उसको दिए थे, वो सब सामान एक बैग में इकठ्ठे कर लिए थे। 

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स्टोर की अलमारी में उसी तरह की 3 - 4 डायरी और थी, फिर से पेज नंबर 14 का ख्याल उसके दिमाग में आया, पर अभी वो उन्हें खोल नहीं सकता था, इसलिए उसने वो सभी डायरी अपने ले जाने वाले बैग में रख दी, उसी अलमारी में उसको एक खूबसूरत फ्रेम में लगी तस्वीर भी दिखी, उस तस्वीर में अशोक साहब तो थे , पर उनके साथ बैठी हुयी वो औरत कोई दूसरी थी, उसके गोद में कम्बल में लिपटा बहुत छोटा बच्चा था, और एक बड़ी उम्र की महिला भी खड़ी थी , बच्चे वाली औरत कुर्सी पर बैठी थी , एक तरफ वो बुजुर्ग महिला, दूसरी तरफ अशोक सर खड़े थे. कौन थी ये दोनों, शायद कोई रिश्तेदार होंगे. फ्रेम बहुत सुन्दर था, इसलिए मनोज ने उसे भी अपने बैग में रख लिया. सारा काम खतम करके मनोज अपनी झोपडी में पहुंचा , और जो सामान मिला था उसको बक्से में रखने लगा. फिर सारी डायरी खोल कर देखने लगा , सब में से कुछ पेज कम थे। लेकिन ये वाला पेज उसी डायरी का हो ये जरूरी तो नहीं. फिर तस्वीर उन दोनों महिलाओं को देखने लगा।




 बाहर जोर का शोर मच रहा था. आज फिर माई को बच्चे परेशान कर रहे थे शायद। माई कौन थी किसी को पता नहीं, कुछ साल पहले लोगो ने उन्हें झोपड़ पट्टी के पास वाली सड़क पर बेहोश पड़ा देखा था, तो उठा कर ले आये थे. उनके सर में चोट लगने की वजह से उनको कुछ भी याद नहीं था,यहाँ तक की अपना नाम भी उन्हें याद नहीं था। गंगू ताई , उनके एरिया की सबसे तेज भिखारिन थी, पर फिर भी उसने तरस खा कर माई को अपनी झपड़ी में रख लिया. वैसे भी वो अकेली ही रहती थी। माई को ढूंढने भी कभी कोई नहीं आया। मनोज सामान रख कर बाहर आया, और माई को देखने लगा, बहुत बार माई को देखा था पहले भी, पर आज ऐसा लगा जैसे उसने माई को कहीं और भी देखा है। माई के कान के पास एक काला निशान था। जोगी भी बाहर खड़ा तमाशा देख रहा था. फिर मनोज और जोगी अंदर आ गए. मनोज , जोगी को सारा मिला हुआ सामान दिखाने लगा. जोगी तस्वीर देखने लगा , तस्वीर में जो बुजुर्ग महिला थी, वो बहुत अच्छे कपडे पहने थी , लेकिन कान के पास माई जैसा निशान था। माई अगर झोपड़ पट्टी में न होती तो क्या इतनी सुन्दर होती। मनोज और जोगी दोनों को ही लगा की माई और तस्वीर वाली महिला शायद एक हो। दोनों तस्वीर लेकर गंगू ताई की झपड़ी में गए और उनको तस्वीर दिखाई। तस्वीर देख कर गंगू ताई भी चोंक पड़ी।

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गंगू ताई ने कहा की करीब चार साल से माई यहाँ है पर माई को कुछ याद नहीं आया। पर कभी कभी नींद में बचाओ बचाओ चिल्लाती है। जब वो आई थी तब उसके पास एक पर्स भी था। गगु ताई ने ढूंढ कर वो पर्स निकाला. वो पर्स जब खोला तो उसके अंदर एक और डायरी थी , उसी तरह की , मनोज ने सबसे पहले वो डायरी उठाई और उसे खोल कर देखा. . इस डायरी में , सिर्फ पेज नंबर 14 तक के ही पेज इस्तेमाल किये गए थे, उसके बाद के सारे पेज कोरे थे। इसका मतलब ये हो सकता था , की 14 नंबर का पेज माई ने ही मदद मांगने को किसी को लिखा था , कब ? कहाँ ? कैसे ? डायरी के अंदर 2 फोटो भी थी, एक वही जो फ्रेम में लगी थी, और एक जिसमे माई और वो बच्चे वाली औरत थीं। साफ़ था की माई का सम्बन्ध अशोक सर से है , लेकिन अभी माई के बारे में अशोक सर को बताना सही है या नहीं। क्या पता माई को क्या हुआ है ? और फिर वो तस्वीर में बच्चे वाली दूसरी औरत कौन थी ? सब के बीच ये तय हुआ की माई के बारे में अभी किसी से कुछ न कहें. अब जोगी को भी मनोज की बातों और सारे मामले में कुछ रहस्य नज़र आ रहा था।


अब तक मनोज की ड्राइवर से भी थोड़ी पहचान अच्छी हो गयी थी। दुसरे दिन मनोज ने ड्राइवर से पूछा की वो कबसे यहाँ काम कर रहा है। ड्राइवर ने कहा की 2 साल हुए हैं , फिर मनोज ने वो तस्वीर दिखा कर पुछा की क्या तुम इन्हे जानते हो ? ड्राइवर ने ना में सर हिलाया और बोला, मुझे तो कुछ नहीं पता, जबसे काम करना शुरू किया , तबसे सिर्फ सीमा मैडम को ही देख रहा हूँ। मुझसे पहले और कौन कौन ड्राइवर रह चुका है पता नहीं , पर एक आदमी है जो पहले भी यहाँ काम कर चूका है, अब अपनी खुद की टैक्सी चलाता है। मनोज और ड्राइवर , पुराने ड्राइवर भीमा के पास गए। भीमा ने तस्वीर देख कर कहा की ये तो अशोक सर, उनकी पत्नी गीता और गीता की माँ हैं. और गोद में अशोक सर और गीता मैडम का बच्चा।
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ये कैसे हो सकता है, ड्राइवर और मनोज दोनों ही अवाक थे, अब तो अशोक सर की पत्नी सीमा है। फिर गीता मैडम कहाँ हैं ? पर इतना पता चल गया की माई अशोक सर की पत्नी गीता की माँ हैं। भीमा , मनोज और ड्राइवर झोपडी में माई को देखने आये , और भीमा ने माई को पहचान कर पुष्टि कर दी। भीमा ने बताया की वो माई और अशोक सर को कई बार एक वकील के ऑफिस में ले जाता था। फिर उसने काम छोड़ दिया। उससे ज्यादा उसे कुछ पता नहीं। मनोज को याद आया की उसे जिस दिन पेज नंबर 14 मिला था, उस दिन उन दोनों ने वकील के ऑफिस के सामने से ही कागज़ उठाये थे। कुछ कड़ियाँ आपस में जुड़ गयी थी, कुछ अभी भी बाकी थी।




मनोज, जोगी, पुराना ड्राइवर भीमा और कार्यरत ड्राइवर शंकर सोच रहे थे कि अब क्या करना चाहिए ? क्या पहले वकील से जा कर मिले या पुलिस को जा कर बताएं। भीमा बोला, वो वकील बहुत काइंया आदमी है , हमे कुछ नहीं बताएगा , उससे तो पुलिस ही उगलवाएगी। इस तरह वो चारो पुलिस स्टेशन पहुंचे और पुलिस इंस्पेक्टर को अब तक के हुए सारे घटना क्रम विस्तार से बताये और जिसको इस सन्दर्भ में जो कुछ भी पता था, वो भी बता दिया। पुलिस इंस्पेक्टर ने 4 साल पहले की फाइल्स निकलवायीं और उसमे उस समय की जितनी भी गुमशुदा की शिकायतें थीं उनका मिलान करने लगा। 

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आखिरकार माई की गुमशुदगी की शिकायत मिल गयी जो कि अशोक सर की ही लिखवाई हुयी थी। इंस्पेक्टर बोला, जब ये रिपोर्ट लिखी गयी थी उस वक्त कोई दूसरा इंस्पेक्टर इंचार्ज था थाने का। जो कुछ फाइल में लिखा था, उससे ज्यादा इंस्पेक्टर को कुछ नहीं पता था। नए सिरे से जांच पड़ताल करनी होगी। अशोक साहब ने फाइल बंद करवा दी थी। लेकिन ,गीता मैडम की गुमशुदगी की रिपोर्ट नहीं थी उस फाइल में। उसके बाद और फाइलें देखी गयी, और गीता की माँ की गुमशुदगी के 1 साल के बाद गीता के घर से गायब हो जाने की रिपोर्ट लिखवाई गयी थी। हैरानी की बात थी की दोनों गुमशदगी की रिपोर्ट अशोक ने ही लिखवाई थी, पर 1 साल के अंतराल के बाद क्यों ?

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इंस्पेक्टर ने कहा, की अभी तुम लोग जाओ, जब ज़रुरत होगी तो बुलवाउंगा, माई का ध्यान रखना, कोई न कोई उनके साथ हमेशा बना रहे। और कांस्टेबल को साथ चलने की कहकर कहा कि अब वो खुद बात करेगा अशोक से , अपने तरीके से और अशोक सर से मिलने उसके बंगले पर गया। 

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रास्ते में अशोक के बंगले से 4 बंगले छोड़ कर एक पेड़ के नीचे एक फलवाला खड़ा हुआ था, बहुत सालों से वो वहीँ पर खड़ा रहता रहा है। आते जाते सभी उससे फल लिए करते हैं, इसलिए वो ज्यादातर सब के बारे में कुछ न कुछ जानता ही था। इंस्पेक्टर सीधा उसके पास गया और पुछा, ये बांग्ला नंबर 8 के लोगो के बारे में क्या जानते हो , जो कुछ भी पता है, सच सच बताना , वरना आज के बाद इस जगह पर खड़ा नहीं होने दूंगा। फलवाला डर और घबराहट में बोला, साब मुझे सारी बातें नहीं पता, पर जो कुछ लोगो से सुना है वो बता देता हूँ और फिर जल्दी जल्दी सब बताने लगा। गीता मैडम की माँ , एक दिन अशोक साब के साथ गयीं थी, फिर वापस नहीं आई, बहुत ढूँढा गया उनको पर वो नहीं मिली। उसके 10 -12 दिन के बाद ही गीता मैडम कहीं चली गयीं छोटे से बच्चे को घर पर अकेला छोडकर।उस दिन के बाद किसी ने गीता मैडम को नहीं देखा। बच्चा बेचारा नौकरों के हाथ पल रहा था, बहुत मुश्किल हो रही थी , इसलिए अशोक साहब को दूसरी शादी करनी पड़ी।
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ये बच्चा गीता मैडम का है ? इंस्पेक्टर ने पूछा 

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जी हाँ साहब है तो गीता मैडम का, लेकिन नयी मैडम अमित बाबा का अपने बच्चे की तरह ख्याल रखती हैं। बस साब मुझे इतना ही पता है। 

इंस्पेक्टर ने कुछ सोचते हुए कहा की ठीक है, अगर और कुछ पता चले तो मुझे थाने आ कर बताना। 

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इंस्पेक्टर को अशोक और सीमा दोनों ही घर पर मिल गए। इंस्पेक्टर ने अशोक को कहा " गीता की माँ का पता चल गया है " ये सुनकर अशोक चोंक गया, फिर जल्दी से बोला , ये तो बहुत अच्छी बात है, वो अभी उनको घर ले कर आएगा। 

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नहीं आप अभी उन्हें नहीं ला सकते हैं, अभी फिलहाल वो हमारी कस्टडी में हैं "इंस्पेक्टर ने कहा

लेकिन क्यों ? अशोक के सवाल में इंस्पेक्टर को प्रश्न काम और घबराहट ज्यादा नज़र आई।
इंस्पेक्टर ने जवाब दिया , अभी आपकी पत्नी गीता के बारे में कोई सुराग नहीं लगा है, इसलिए कुछ जानकारी इकठ्ठी करनी है, फिर अनजान बनते हुए अशोक से पुछा ये मैडम कौन हैं ? अशोक ने जवाब दिया " गीता के अचानक गायब हो जाने के बाद काफी वक्त तक मैंने बच्चे को संभाला, फिर मजबुरन दुसरी शादी करनी पड़ी , ये मेरी दूसरी पत्नी सीमा हैं। 
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इंस्पेक्टर ने सीमा को देखा , फिर अशोक से पुछा, की क्या वो सीमा से कुछ सवाल कर सकता हूँ। अशोक से इजाजत लेकर इंस्पेक्टर ने सीमा से सवालात शुरू किये, की क्या उसे अशोक की पहली पत्नी के बारे में कुछ पता है, या गीता की माँ के बारे में? . सीमा ने इंस्पेक्टर को बताया की वो सिर्फ इतना जानती है की गीता की माँ अशोक के साथ कहीं बाहर गयी थी, पर रास्ते में से कहीं चली गयीं। और फिर एक दिन गीता भी कहीं चली गयी।
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गीता कब गयी यहाँ से ? सीधा सवाल इंस्पेक्टर ने अब अशोक से पुछा। जी माजी के गायब होने के 1 साल के बाद, " मैंने उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट भी लिखवाई थी, अब आप लोग क्या काम करते हैं जो अभी तक नहीं ढूंढ पाये "
इंस्पेक्टर सोच में पड़ गया, अशोक ने गुमशुदगी की रिपोर्ट 1 साल बाद लिखवाई थी और बोल भी वही रहा है, पर फलवाले के अनुसार माजी के जाने के 10 -12 दिन के बाद ही गीता मैडम किसी को दिखाई नहीं दी थी।
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ठीक है, फिर आऊंगा कह कर इंस्पेक्टर वहां से वापस आ गया। टेबल पर पेन को गोल गोल घुमा रहा था इंस्पेक्टर, गीता कभी मिली नहीं, माई बोल नहीं सकती , बाकी की बात कैसे पता चलेगी। पेज नंबर 14 को हैंडराइटिंग एक्सपर्ट को दिखाया गया था, जिससे ये बात साफ़ हो चुकी थी की वो लिखावट माई के हाथ की ही थी। तभी उसे वकील का ध्यान आया और वो वकील से मिलने चल पड़ा।
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" जय हो वकील साब" अपने ऑफिस में इंस्पेक्टर को देखकर वकील कुछ पेश-ओ-पेश में पड़ गया " हमारी क्या ज़रुरत पड़ गयी आपको इंस्पेक्टर साहब "
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" ऐसे ही जनाब एक पुराना केस है, उसी के सिलसिले में कुछ तफ्तीश करनी है " फिर इंस्पेक्टर ने अशोक के बारे में पुछा की वो उसके पास क्यों आता था। 

वकील ने बताया वैसे तो हम अपने क्लाइंट की बातें किसी को बताते नहीं हैं , पर आप पूछ रहे हैं तो बतानी पड़ेगी " अशोक की रेडीमेड गारमेंट्स की फैक्ट्री में बहुत नुक्सान हो रहा था, पैसो की ज़रुरत थी, इसलिए उसने 2 खाली ज़मीन बेचीं थी , उनकी लिखा पढ़ी से जुड़े कुछ काम किये थे। " इंस्पेक्टर ने फिर पुछा, लेकिन वो गीता की माँ को लेकर क्यों आता था।
वकील ने कहा " दरअसल वो दोनों ज़मीने, गीता के पिताजी की वसीयत के अनुसार गीता की माँ के नाम पर थी , इसलिए उनके द्वारा ही बेचीं गयीं थी "
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तो ये सारा चक्कर जयदाद का है, इंस्पेक्टर ने वकील को पुछा, " क्या गीता की माँ से जबरदस्ती की गयी थी , दस्तावेज पर दस्तखत करने के लिए "
" ना जी ना , बिलकुल नहीं, उन्होंने अपनी मर्जी से ही ज़मीने बेचीं थी " वकील ने कहा , लेकिन एक बात है , वो दस्तखत करके बोली की नीचे गाडी में बैठी हैं, और ऑफिस से बाहर चली गयीं। लेकिन वो गाडी में नहीं जा कर बैठी , मतलब कहीं चली गयीं , क्या हुआ कुछ पता नहीं "
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इंस्पेक्टर गुस्से में बोला " ये बात पहले क्यों नहीं बताई "
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अरे साब कितनी बार बता चूका हूँ पुलिस वालो को की यहां से सकुशल गयीं थी, आप मेरे ऑफिस के लोगो से पूछ ले, अब बाहर क्या हुआ, मैं कैसे जान सकता हूँ।
झूठ मत कहना , वरना पूरी ज़िन्दगी जेल में बितानी पड़ेगी।
नहीं साब, बिलकुल नहीं, वकील ने जवाब दिया। इंस्पेक्टर ने तब तक फोन करके मनोज और जोगी को भी बुलवा लिया था। तब इंस्पेक्टर ने जेब से वो पेज नम्बर 14 निकाला और वकील को दिखाया , ये पेज गीता की माँ का लिखा हुआ है मदद के लिए , इसको पहचानते हो "
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नहीं मैं नहीं जानता , साफ बोल दिया वकील ने, की ये मेरे यहाँ का नहीं है '
" झूठ मत बोलो , ये तुम्हारे यहाँ के कागज़ों में ही मिला है इन दोनों लड़को को, सच सच बताओ वकील साब "

वकील उन दोनों लड़को को पहचानता था, दूकान के आगे से कई बार कागज़ बीनते देखा था उन्हें , तब वकील ने कहा कि , ये कागज़ उसे उन दस्तावेज में मिला था , और उसने अशोक को बताया था। पर अशोक ने कहा की कुछ नहीं है फेंक दो, फिर शायद वो कागज़ टेबल पर से उड़ गया और किन्ही कागजो में मिल कर इन लड़को तक पहुँच गया। हो सकता हो माई को किसी से खतरा हो, और वो उन कागजो में इस चिठ्ठी को रख गयीं हो। पर तब माई कहीं चली गयी थी, और वो कागज़ भी कहीं खो गया था, इसलिए उसने इस कागज़ वाली बात कभी किसी को नहीं बताई थी। इंस्पेक्टर ने वकील के हाथ से कागज़ लिया और कहा की जब भी ज़रुरत होगी आ जाना और एक बात भी अगर अशोक को बताई तो उससे बुरा कोई नहीं होगा।
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कहीं न कहीं कुछ कमी है, जब तक माई कुछ न बोले या गीता का पता ना चले, अशोक के खिलाफ कोई भी सबूत नहीं है की उसने कुछ गलत काम किया है ।

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जिस समय गीता गायब हुयी उस समय घर में कौन काम करता था, उसका पता चले तो शायद कुछ और बात निकल कर आये। इंस्पेक्टर फिर से अशोक से मिलने गया और सारे पुराने नौकरो के बारे में पूछने लगा। अशोक ने कहा की अब वो नौकर कहाँ हैं उसे नहीं पता।

इंस्पेक्टर ,फिर से फलवाले के पास पहुंचा और पूछा कि गीता मैडम के समय में घर पर कौन काम करता था। 

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फलवाले ने कहा की उस समय गौरी और उसकी बीवी कांता थे, गीता मैडम के जान एके बाद भी वो बच्चे को संभालते रहे थे, फिर जब साहब ने सीमा मैडम से शादी की, उसके बाद वो दोनों गांव चले गए। साहब ने उनको गांव में एक दूकान खुलवा कर दी थी। गौरी उसको बता कर गया था, की साहब ने उसपर बड़ी मेहेरबानी की है। फलवाले से गौरी के गांव का नाम , पते की जानकारी लेकर इंस्पेक्टर ने 2 आदमी गांव भेजे। उन दोनों आदमी ने इंस्पेक्टर को आकर बताया की सच में वो गांव में रहता है और एक किराने की दूकान चलाता है। 

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इंस्पेक्टर गौरी से अचनक मिलना चाहता था, इसलिए उसने आदमियों से गौरी से कुछ भी बात करने से मन किया था। अचानक इंस्पेक्टर को सामने देख कर गौरी सकपका गया 

इंस्पेक्टर ने पुछा , अशोक साहब को जानते हो, 

"जी हाँ साहब उनकी ही कृपा से आज दूकान चलती है मेरी " गौरी ने कहा 

लेकिन अशोक साहब के पास तो पैसे की बड़ी तंगी रहती थी फिर उसने तुम्हे गांव में मकान और दूकान खरीद कर क्यों दी।

अरे साहब, इतने समय उनके यहाँ काम किया है , बस खुश हो कर दी है।
इंस्पेक्टर ने गौरी से कहा , की उसे उसके साथ शहर चलना होगा गीता की माँ के बारे में बात करने के लिए।
अब गौरी गिड़गिड़ाने लगा, "साब मैंने कुछ नहीं किया, मुझे उन दोनों के बारे में कुछ नहीं पता 
"
लेकिन गीता मैडम जब गयीं थी तब तू और तेरी घरवाली ही घर पर काम करते थे। तुम दोनों को चलना होगा मेरे साथ।
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इंस्पेक्टर की बहुत सख्ती के बाद भी गौरी कुछ नहीं बता रहा था, पर गौरी की बीवी कांता ज्यादा सख्ती बर्दास्त नहीं कर पायी, और रोते -रोते बोली, " साब हमारी कोई गलती नहीं थी, माजी के चले जाने के बाद गीता मैडम और अशोक साब का रोज़ झगड़ा होता था , पुराना ड्राइवर भीमा भी नौकरी छोड़ कर चला गया था। फिर अशोक साब ने गौरी को ड्राइवर की नौकरी पर रख लिया। फिर एक दिन अशोक साब ने गुस्से में गीता मैडम को बेसमेंट वाले कमरे में बंद कर दिया। बच्चे को मैं संभालती थी और घर भी, अशोक साब खुद ही गीता मैडम के लिए खाना ले कर जाते थे , नीचे के कमरे की चाबी भी अशोक साब के पास रहती थी, गीता मैडम को बच्चे से भी नहीं मिलने दिया जाता था। कई महीने गीता मैडम नीचे बंद रही , शायद वो बहुत कमजोर हो गयी थी , एक दिन अपने आप ही चल बसी, हमने कुछ नहीं किया "
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इंस्पेक्टर को आशंका तो थी, की कुछ गलत हुआ है, पर ये सुनकर इंस्पेक्टर को भी हैरानी हुयी,
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उसने कांता से पुछा " गीता की लाश का क्या किया तुम लोगो ने "
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" वहीँ नीचे बेसमेंट में गड्डा खोद कर गाड़ दिया उन्हें " इंस्पेक्टर ने गुस्से में जोर का चांटा मारा कांता को, कुछ नहीं किया बोलती है, इतने दिन एक औरत पर जुल्म होता रहा और तुमने किसी को नहीं बताया ऊपर से लाश को दफना दिया , सबूत मिटा दिया और गांव में जाकर ऐश कर रहे हो "


साब गीता मैडम अपने आप मर गयी थी, अशोक साब ने कहा की अगर किसी को कुछ भी बताया तो हमारे बच्चो को जान से मार देंगे, फिर हमे गांव में दूकान और घर दिलवाया और हम वहां से चले गए।
बंद कर दो दोनों को अंदर , अब इंस्पेक्टर के पास अशोक के खिलाफ गवाह मिल गए थे , इस
लिए सीधे जाकर अशोक को धर दबोचा।
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आखिरकार अशोक भी इंस्पेक्टर की मार के आगे झुक गया , और जो कहानी उसने बताई वो इसप्रकार थी, की गीता से उसकी शादी 2 साल पहले हुयी थी, उसके बाद उसको व्यापार में बहुत घटा हो रहा था, पैसे की ज़रुरत के लिए उसने माजी पर दवाब डाला की ज़मीन बेच कर पैसा दे दें। गीता अपनी माँ को जमीन नहीं बेचने दे रही थी , गीता की माँ को उसने डराया की अगर वो कागज़ात पर दस्तखत नहीं करेगी तो वो गीता को मारेगा। इस बात से डर कर गीता की माँ जमीन बेचने को तैयार हो गयी थी, पर उस दिन वकील के यहाँ से वो गायब हो गयी और फिर नहीं मिली। गीता घर पर बहुत परेशान कर रही थी। अशोक, घर भी अपने नाम पर ट्रांसफर करवाना चाहता था, पर गीता ने इतने सब के बावजूद भी घर उसके नाम नहीं किया और एक दिन अपने आप ही चल बसी " उसने डर की वजह से गौरी के साथ मिलकर लाश वही गाड़ दी। कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा , पर बच्चे को संभालने के लिए उसे दूसरी शादी भी करनी थी, इसलिए उसने थाने में जाकर गीता के घर से गायब होने की रिपोर्ट लिखवा दी। और उसके बाद सीमा से शादी कर ली। सीमा से शादी के बाद, उसने गौरी और उसकी बीवी को गाँव भेज दिया कि वो लोग सीमा को कुछ भी गीता या उसकी माँ के बारे में नहीं बता दें।
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घर के अंदर बेसमेंट भी है ये बात सीमा को भी नहीं पता थी , उसका दरवाजा, स्टोर की एक अलमारी के पीछे से जाता था। वहां से गीता के अवशेष बरामद हो गए और डीएनए टेस्ट से ये साबित हो गया की वो गीता की ही अस्थियां थी।
अशोक को उसके किये की पूरी सजा मिली, गीता की माँ और गीता पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार, गीता को इस तरह बंद रखने और अत्याचार करने, एवं उसकी मौत के बाद लाश को वहीँ गाड़ देने के जुर्म में आजीवन कारावास। गौरी और उसकी बीवी कांता को इस जुर्म में शामिल होने के लिए 12 साल की सजा हुयी।


वकील का ज्यादा कसूर नहीं था, सिर्फ वो कागज़ (पेज नंबर 14) की बात छुपाएं रखने के लिए उसपर २ साल की सजा और जुरमाना।
सीमा की मानसिक स्तिथि बहुत अजीब थी, उसको कुछ भी नहीं पता था, ना ही वो इस अपराध में शामिल थी, इसलिए उसपर कोई दोष नहीं था
सीमा ने अमित की पर
वरिश की जिम्मेदारी खुद पर ले ली, उसने अमित को जनम नहीं दिया था पर उसको सगी माँ की तरह ही प्यार करती थी। माई की यादाश्त तो वापस नहीं आ पायी थी, शायद फिर से अपने घर में लौट कर ठीक हो जाये शायद किसी दिन ।
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घर जो गीता के नाम पर था वो अब अमित के नाम पर था, जिसकी अभिवविका गीता की माँ थी, और बिज़नेस को सँभालने की जिम्मेदारी सीमा को सौंपी गयी थी, पर सिर्फ संभालने की, ट्रस्टीज के साथ , जब तक की अमित खुद बालिग़ नहीं हो जाता। अमित ने होश संभालने से पहले ही अपनी माँ को खो दिया था, उसके लिए तो अब सीमा ही उसकी माँ और पिता थे।
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मनोज को सरकार से जो इनाम मिला वो उसने कहा की उसकी बस्ती में सुविधायें लगवाने का काम कर दिया जाए। . अब मनोज बंगले में अमित को संभालता था, और गाडी चलाना भी सीख रहा था। आज उसकी समझदारी से माई की ज़िन्दगी में बदलाव आ गया और गीता के कातिल को सजा मिल गयी।
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आजीवन कारावास

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अम्माजी नाहा धो कर बाल सुलभ सी चहक रही थी, आश्चर्य हुआ सुधा को, मन ही मन ही मन बुदबुदाते हुए सोच रही थी, अक्सर खामोश रहने वाली अम्माजी को आज अचानक क्या हुआ.
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तभी अम्माजी ने पीछे से आकर "खो " कर के डरा दिया और हँसने लगी. 
अम्माजी क्या हुआ है आज आपको, " मन में सोचने लगी सुधा , लोग तो मरने की खबर सुन कर मायूस हो जाते हैं ये अम्माजी तो बौरा गयी हैं, लगता है कुछ गलत समझी हैं. 
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अम्माजी यहाँ बैठो, कह कर सुधा ने अम्माजी को पास पड़ी कुर्सी पर बैठा दिया। सुधा अम्माजी की परम प्रिये सखी,उम्र २१ वर्ष , अम्माजी से पूरे ५० साल छोटी , बारहवीं पास दूसरी बार में, एक साल एक विषय में अटक जो गयी थी, दुबारा प्राइवेट फॉर्म भर के बारहवीं पास की थी, वो भी अम्माजी के सहयोग से। बारहवीं में फ़ैल होने के बाद सुधा की माँ उसे अम्माजी के घर ले आई थी , अम्माजी को पता चला की बारहवीं में रह गयी तो खुद अपने पैसों से बारहवीं का प्राइवेट का फॉर्म भरवा दिया , और खुद ही उसको पढ़ाया भी , इस तरह से उसकी बारहवीं पास हो गयी। और इस एक साल में दोनों के बीच गहरी दोस्ती भी हो गयी।
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सुधा , जो अम्माजी के साथ दिन भर समय वयतीत करती थी और कुछ एक काम में अम्माजी की मदद करती थी, अब इस उम्र मैं अकेले भी तो नहीं छोड़ सकते थे अम्माजी को, बहु बेटे दोनों नौकरी जो करते हैं अम्माजी के, ऊपर से अम्माजी दिल की मरीज। बहु और बेटा दोनों सुबह ऑफिस चले जाते हैं , रह जाते हैं सुधा और अम्माजी एक दुसरे को पूरा दिन झेलते, रात को सुधा अपने घर चली जाती है,सुधा के बाबू ने ये शर्त रखी थी ,की रात को तो घर पर ही आएगी सुधा , जवान लड़की को रात को छोड़ने को तैयार नहीं थे, चाहे कितना भी विश्वास क्यों न हो अम्माजी के यहाँ ।
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कल जब डॉक्टर आया था, तो अम्माजी की रिपोर्ट देख कर कहा था, वैसे तो सब ठीक है, पर कुछ कह नहीं सकते , दिल की नसे सिकुड़ रही हैं, दौरे जल्दी- जल्दी भी पड़ सकते हैं, ध्यान रखिये। यूँ तो डॉक्टर ने धीरे से चुपचाप कहा था, पर अम्माजी ने शायद सुन लिया था। सुधा अम्माजी के चेहरे के मनोभावो को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
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सुधा आज तो नाश्ते में उरद दाल की कचोरी बना दे। अम्माजी , कैसी बात करती हो आप, डॉक्टर ने तली हुयी चीज़ें बिलकुल खाने से मना किया है, भैया आकर मुझे डांटेंगे। अम्माजी हँसते हुए बोली, अरे , तूने सुना नहीं डक्टर ने क्या कहा दौरे जल्दी पड़ सकते हैं, तो एक दिन और पहले सही। अवाक देख रही थी सुधा अम्माजी को, इसका मतलब अम्माजी ने सब कुछ सुन लिया था "आप को बड़ी मरने की जल्दी है" बोले बिना रह न सकी सुधा ।
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अम्माजी ने मुस्कुराते हुए सुधा से कहा, मरता तो शरीर है आत्मा नहीं मरती, और इस शरीर की कैद से आत्मा आज़ाद हो जायेगी तो ये तो ख़ुशी की बात हुयी न। बस अब कुछ ही दिन शेष हैं, फिर इस आजीवन कारावास से मुक्ति मिल जायेगी। ऐसा क्यों कहती हो अम्माजी, भैया- भाभी आपको बहुत प्यार करते हैं सुधा ने कहा। कहीं ना कही सुधा को अम्माजी बहुत रहस्यपूर्ण लगती थी, सरल , शांत, कभी कभी बेहिसाब बोलती, कभी चुप चाप बैठ के कुछ सोचती रहती।
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अम्माजी बोली , हाँ दोनों मुझे बहुत प्यार करते हैं, पर एक न एक दिन तो जाना ही है। सुधा अम्माजी के चेहरे को तकते हुए बोली और फिर मैं क्या करुँगी। 
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तू अपनी पढाई कर आगे सुधा, कॉलेज के दाखिले का फॉर्म लायी या नहीं। 
कहाँ अम्माजी , सुधा ने कातर शब्दों में कहा," माँ कल रात को बाबू से कह रही थी की लड़का देख कर शादी कर दो, मैंने कहा की कॉलेज की पढाई करनी है, तो कहा की अब जो करना है ससुराल जा कर करना "।
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अम्माजी बुदबुदाने लगीं, न जाने ये सोच कब बदलेगी की जो करना है ससुराल जा कर करना। जिस घर में पैदा हुए, पले बढे, अगर उस घर में न कर सके तो पराये घर में क्या जरूरी है की मन माफिक सब हो जायेगा. सुधा रसोई में अम्माजी के नाश्ते के लिए दूध का दलिया बनाने चली गयी। अम्माजी अपने ख्यालों में फिर बचपन के उन दिनों में पहुँच गईं , जब वो गुड्डे गुड़ियों के ब्याह रचाया करती थी, कितने सपने आँखों में इंद्रधनुश के रंगों की तरह बिखरे रहते। और हर सपने के जवाब में , माँ की वो बात की जब अपने घर जाओगी तो जी भर के ये करना, वो करना। और उस राजकुमार के साथ जीवन के आनन्दमयी भविष्ये के सपने उसके मन में हिलोरे लेने लगते।
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कॉलेज की पढाई खत्म होते होते सगाई हो गयी। कैसे कूद कूद कर हर किसी को बताती फिर रही थी की मेरी सगाई हो गयी, शादी में आना। घर में बातें होती कन्यादान महा दान है, पुण्य और सौभाग्य की बात। उसको न दान पता था न धर्म, उसके पास तो बस उसके सपनो की दुनिया थी। हाथ की कारीगरी से उसने एक बहुत सुन्दर डोली और विदाई की तसवीर बनाई थी। बहुत अजीज थी उसे वो तस्वीर और उसकी पालकी में बैठी लाल जोड़े में सजी दुल्हन।
लगन के दिन, सुबह जब कमरे में कपडे पहन रही थी तो बर्फ जैसे ठन्डे जाड़ों के दिन में भी दीवार के सहारे रखी, उसकी दुल्हन की तस्वीर के कांच का फ्रेम अपने आप ही चटक कर पूरे कमरे में किरच किरच बिखर गया। हैरान परेशान मूक दर्शक की तरह बिखरे शीशे के टुकड़ों को देख कर मन अंजान संशय से भर उठा। तभी माँ कमरे में आई, किसी भी दकियानूसी बातों पर न यकीन करने वाली माँ बोली, " क्या हुआ, कांच ही तो टूटा है, दूसरा फ्रेम बन जाएगा अगली बार ले जाना , जल्दी चलो पंडित जी बुला रहे हैं"। सखियों और सहेलियों की चुहल के बीच तस्वीर के कांच का दुःख कम हो गया।
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शादी की मेहँदी उसकी फुफेरी बहन ने खुद अपने हाथों से रचाई थी, पर न जाने क्यों मेहँदी का रंग नहीं चढ रहा था, जितने लोग उतने सुझाव, फिर क्या था, पुराने आम के अचार का तेल, लौंग का धुंआ, नीम्बू का रस , पान का चूना, विक्स का मलहम, एक एक करके सब पोत दिया गया हथेलियों पर , पर मेहँदी का रंग , अड़ियल घोड़े की तरह चढ़ने का नाम न लिया और रंग पीले सिंदूरी से ज्यादा न आ सका। और वो पीला रंग भी दो दिन में उतर गया। जिस स्वप्निल राजकुमार के साथ मन के मयूर नृत्य किया करते थे, वो कहीं न मिला. , न प्रेम, न वो साथी,, फ्रेम के कांच की तरह सारे सपने भी किरच किरच बिखर गए। । कोई मिला तो एक संकीर्ण सोच वाला पति " इससे बात मत करो, ऐसे कपडे मत पहनो, ऐसे हंसो मत," इतने सारे मत के साथ अपनी खुद की मर्जी से क्या करें क्या न करें की दुविधा भी शामिल हो गयी। जिसके लिए वो एक दान में मिली सम्पति थी। दान मैं मिली वस्तु मुफ्त मिली वस्तु की तरह होती है, कैसे कदर होगी उसकी।
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न जाने ये कन्यादान की परंपरा कितनी सदियों से चली आ रही है, क्या लड़कियां गाय, बकरियां होती हैं जो उन्हें दान कर दिया जाता है , आजकल तो जानवरों के लिए भी इतने कानून बन गए हैं. न जाने ऐसे कितने सवाल काले बादलों की तरह मन के आकाश पटल पर उमड़ घुमड़ कर चले जाते, बिना बरसे। लड़की जिस घर में बड़ी होती हैं उसकी जड़ें उस घर के संस्कारों की जमीन में गढ़ कर उसे एक सम्बल देती हैं , और अचानक उसे जड़ों सहित उखाड कर अंजानी जगह भेज दिया जाता है, फिर अगर सही खाद पानी न मिले तो जड़े हमेशा उखड़ी ही रहती हैं, कभी जम नहीं पाती हैं। बचपन से पराया धन कही जाने वाली लड़की को दुसरे के घर में फिर से खुद को स्थापित करने की कशमकश में उसका खुद का वजूद कब खत्म हो जाता है खुद उसे भी समझ नहीं आता। जड़ें जमते जमाते तो ज़िन्दगी बीत जाती है। और कभी कभी तो जड़ें सूख भी जाती हैं और रह जाती हैं बस ठूंठ ।
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ऐसी ही एक ठूंठ थी उसकी ताई की बेटी विनीता। विनीता दीदी बिलकुल विश्वामित्र की मेनका जितनी सुन्दर थी, जो देख ले वो बस देखता ही रह जाए , पर शादी के बाद पता चला की जीजाजी कुछ काम ही नहीं करते बस बाप दादा की कमाई हुयी दौलत पर ऐश करते हैं और दिन भर शराब पीते हैं। विनीता दीदी की ज़िन्दगी अजीब सी हो गयी थी, रात होते ही शराब के गिलास भर कर पति को पिलाना, और कभी कभी तो जीजाजी विनीता दीदी को भी जबरदस्ती शराब पिला देते थे। विनीता दीदी विरोध करती तो फिर जीजाजी के थप्पड़ खाती , करे तो क्या करे, बिगडैल रईसजादे को काबू में करना किसी के बस की बात नहीं थी। कई बार विनीता दीदी रो रो कर अपनी बातें ताई से कहती थी, माँ और ताई किस्मत को कोसते रहते. " हमारी इतनी सुन्दर पढ़ी लिखी बिटिया , भगवान् ने सब कुछ दिया पर भाग्य ही नहीं दिया।
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धीरे धीरे विनीता दीदी ने मायके आना भी बंद कर दिया , किसी रिश्तेदार से खबर मिली की अब तो विनीता दीदी भी खूब शराब पीती हैं। ताई के मरने की खबर सुनकर भी विनीता दीदी नहीं आयीं थी। उन्होंने अपने सारे नाते तोड़ दिए थ। लोगो का क्या जाता है मुंह चलाने में " कैसी बेगैरत लड़की है, माँ के मरने पर भी नहीं आई" ।जब मन मर जाता है तो भावनाएं भी कहाँ बचती हैं। विनीता दीदी पत्थर कैसे बन गयी, और उस जीवन को अपनाने के पीछे की उनकी मजबूरियां और दर्द उसी चारदीवारी में कैद हो चुके थे ।
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पिंजरे में कैद पक्षी कुछ दिन आज़ाद होने के लिए पंख फड़फड़ाता, है, और उसकी इस कोशिश में खुद ही लहूलुहान भी होता है, या तो उसके पंख काट दिए जाते हैं या वो खुद ही धीरे धीरे अभ्यस्त हो जाता है उन सलाखों का। और फिर पूरी ज़िन्दगी उसी दायरे में आजीवन कारावास की तरह गुज़ारता है।
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बिलकुल ईसी की तरह ही मिलती जुलती कहानी दुसरे बाबा की चन्दा बुआ की भी थी,कितना ढूंढ कर वर ढूँढा था , कितनी अच्छी नौकरी, घर बार, शादी के कुछ दिन बाद सब सही रहा, फिर एक दिन उनके पति ने नौकरी छोड़ दी, घर में भूखे मरने की नौबत आ गयी, तब बड़े बाबा ने पीसीओ खुलवा दिया , की किसी तरह गुज़र बसर होती रहे। बस उसी तरह उन्होंने अपने बच्चों को बड़ा किया, उससे ज्यादा कुछ नहीं पता चला, लौट कर कभी वो भी ना आई, बड़े बाबा , दादी दोनों गुज़र गए , पर चन्दा दीदी का एक फ़ोन भी न आया। शायद ऐसी अनगिनत कहानिया बिखरी होंगी हर तरफ।
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वो भी तो हर किसी से कटती जा रही थी, स्वप्न, और आशा ओझल हो चली थीं , निराशा घेरने लगी थी। क्या वो भी एक दिन एक ठूठ बन जायेगी ? , या पत्थर की अहिल्या ? , ये कोई राम राज्य नहीं है कि कोई राम आएगा अहिल्या का उद्धार करने। मन में बहुत सी उधेड़ बुन चलती रही , ख़ामोशी से अपने अंदर की आवाज़ सुनी तो समझ में आया की रोकना होगा खुद को ही, बदलना होगा खुद को ही। पेड़ को अपनी जड़े जमाने को गीली मिटटी चाहिए, नरम, मुलायम, पत्थरों के नीचे जड़े कैसे जमेगी। खुद को पानी में बदलना होगा , और बहना होगा इन्ही पत्थरों के बीच से। दायरे में ही सही पर बढ़ना होगा प्रकाश की ओर।
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इंसान का जब एक हाथ काट जाता है तो कहते हैं की ईश्वर उसके दुसरे हाथ में दुगनी शक्ति भर देता है। कुछ ऐसे ही अम्माजी ने भी अपने मन को शसक्त कर लिया था और रोक लिया था खुद को पत्थर में बदलने से। फिर आसान हो गया था जीवन। जीने की राह तो खुद ही ढूंढनी पड़ती है , आत्मविश्वास और धैर्य के साथ।
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इतनी गहन सोच में डूबी थी अम्माजी की सुधा की आवाज़ भी कानो में नहीं पड़ी। सुधा ने आकर अम्माजी को हिलाया , " हाय अम्माजी , आपने तो मुझे बिलकुल डरा ही दिया, कब से ऐसे ही बैठी हो , आज ही मत चल दो, भैया का फ़ोन आया था, शाम की गाडी से बाबूजी आ रहे हैं वापस " लो दलिया खा लो।
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अम्माजी ने सुधा के हाथ से दलिया लेते हुए कहा , तो मैं क्या करूँ, उनका कमरा सही कर दो. अम्माजी और बाबूजी के अलग अलग कमरे हैं, दोनों के अपने अपने जीने के तरीके हैं, जैसे दो देश , युद्ध की संधि के बाद, अपने अपने हिस्से में बिना एक दुसरे की सीमा पर अतिक्रमण करते हुए रहते हों। सुधा को कभी कभी आश्चर्य भी होता था, की कैसे हैं दोनों, बात भी करते हैं पर बस नपी तुली जरूरत भर की। बाबूजी तो फिर भी कभी कभी अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाते हैं। अम्माजी कहीं नहीं जाती , बस अपने आप में मगन, अपनी ही दुनिया में खुश। 
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आज तो कुछ ज्यादा ही खुश , अब जल्दी ही उन्हें आजीवन कारावास से मुक्ति जो मिलने वाली है।
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-मंजरी




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चुड़ैल 

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( यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है, मैंने पात्रों के नाम और कुछ परिवेश बदल दिए हैं, आशा है आप सब को अच्छी लगे ये कहानी। ....कनिका की चाची को इस कहानी के द्वारा मेरी भाव पूर्ण श्रधांजलि ) 
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कनिका चंदा मामा की कहानियां पढ़ रही थी. कहानी की चुड़ैल जो घर में घुस कर बच्चों को पकड़ कर ले जाती है। जिसके पाँव उलटे हैं और झाड़ू पर बैठ कर खिड़की से उड़ कर आती है। जिसके लंबे बाल, बड़े बड़े नाख़ून और दो दांत भी हैं.। जिस घर में चुड़ैल आती है उस घर के दरवाजे पर काला क्रॉस बना देती है , फिर दुबारा जब आती है, तो 7 घर छोड़ कर फिर आंठवे घर में आती है। क्या सच में चुडैल होती हैं, विस्मय से भरे मन से सोच रही थी। तभी चाची आयीं, गोल मटोल सी गोरी- गोरी चाची। "क्या पढ़ रही हो कनिका?"
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कनिका चाची के गले चिपक कर पूछ बैठी , चाची क्या चुड़ैल सच में होती है ? 
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अरे बुध्धू लड़की चुड़ैल सिर्फ कहानी की किताबों में होती हैं, वास्तविक जीवन में कोई चुड़ैल नहीं होती है. वास्तविक जीवन में परियां होती हैं कनिका जैसी , कहकर चाची ने कनिका को और कस कर गले से लगा लिया। 
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कनिका , उसके माँ पिताजी के शादी के दस साल बाद , बहुत मान- मनुहार , कितने पूजा पाठ के बाद पैदा हुयी थी। कनिका की माँ की बढ़ती उम्र में संतान की वजह से कुछ तबियत ठीक नहीं रहती थी, ऐसे में न जाने क्या हुआ था , की अचानक उनकी तबियत इतनी बिगड़ गयी की गांव के डॉक्टर उन्हें बचा ना सके। कनिका के जनम के साथ ही उनका देहांत हो गया। पिताजी अकेले कैसे संभालते तब से चाचा और चाची उसे अपने साथ ग्वालियर ले आये थे। चाची की दो बेटियां पहले से थी। वर्षा 12 साल की और कृपा 9 साल की। दोनों बच्चियों को एक छोटी बहिन मिल गयी और कनिका को माँ। अपनी माँ की याद तो कनिका को कहाँ से होती , चाची ही उसकी माँ , उसकी सब कुछ थी। चाची ने कनिका को माँ की कमी कभी महसूस नहीं होने दी। 
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वक्त बीतने के साथ कनिका के पिता जी ने एक और शादी कर ली , औरत अकेले ज़िन्दगी काट लेती है , पर आदमी अकेले घर नहीं संभाल सकता। नयी माँ अच्छी थी। कनिका के पिताजी ने कनिका को वापस गांव आने को कहा , पर कनिका चाची को छोड़ कर नहीं गयी। नयी माँ को बेटा हुआ, बस तब गयी गांव कुछ दिन के लिए। कनिका को चाची के सिवा कोई नहीं भाता था। इसलिए कनिका के पिताजी ही , नयी माँ और कनिका के सौतेले भाई को लेकर उससे मिलने आ जाते थे। 
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आज कनिका 13 साल की हो गयी है। वर्षा दीदी की शादी हो गयी है. कृपा दीदी दिल्ली में जॉब करती हैं तो कभी कभी आती हैं। चाचा दूकान चले जाते हैं, रेडीमेड गारमेंट्स की बहुत बड़ी दूकान है चाचा की। 
चाची थोड़ी मोटी थी, पर बहुत सुन्दर , और फुर्ती तो इतनी, की चढ़ाई पर बने घर तक के रास्ते को कनिका से कदम से कदम मिला कर पूरा कर लेती थी। पूरे घर का काम अकेले संभाल लेती थी। पड़ोस का कोई घर ऐसा ना था जो चाची को जानता ना हो। सबसे मिल जुल कर रहना और सबके सुख- दुःख में काम आना । सबकी दुलारी थीं कनिका की चाची । और चाचा , वो तो जान छिडकते थे चाची पर। चाचा का मानना था की चाची भाग्यशाली हैं, जिनकी वजह से उन्होंने इतनी तरक्की की। 
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चाचा दूकान से 9 बजे घर आते थे , उनके आने से पहले चाची पूरा श्रृंगार कर के तैयार हो जाती थी। आठ बजने से पहले चाची घर के सारे काम निपटा लेती थी और फिर पहले घर ठीक करना , फिर हर चीज़ करीने से लगाना और फिर खुद संवारने में लग जाती थी। चाचा को सजी - संवरी चाची बहुत सुन्दर जो लगती थीं। दिन में चाहे कोई भी रंग की साडी पहने, चाचा के लिए चाची रोज़ रात को लाल सुर्ख साड़ी पहन कर, माथे पर बड़ी लाल गोल बिंदी लगाती थी। होठों पर गाढ़ी लाल रंग की लिपिस्टिक और बालो को गोल करके जूड़ा बना लेती थी। शादी के इतने साल बाद भी वो नयी नवेली दुल्हन की तरह तैयार हो, जूड़े में मोगरे के फूलों का गजरा लगा कर चाचा के स्कूटर की आवाज़ सुनने के लिए खिड़की वाली कुर्सी पर बैठ जाती थी। चाचा के स्कूटर की आवाज़ सुनते ही घर का दरवाजा खोल कर तैयार रखती थी की चाचा को घर के अंदर आने के लिए एक मिनट भी देर ना हो। 
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इतने सालों से कनिका ये सब देखती आ रही थी की चाची को तैयार होते देख कर घडी में आठ बजने की सूचना मिल जाती थी। ज़िन्दगी बहुत व्यवस्थित तरीके से चल रही थी। अब जल्दी ही कृपा दीदी की भी शादी होगी। 
17 वर्ष की कनिका बहुत उत्साहित थी कृपा दीदी की शादी के लिए। 
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बस एक मुश्किल ये थी की कनिका की बारहवीं की परीक्षा होनी हैं, और एक्स्ट्रा क्लासेज भी चल रही हैं। इसलिए वो चाह कर भी चाची की ज्यादा मदद नहीं कर पा रही थी। शादी की तैयारी चाची अकेले कैसे करेंगी, कोई तो चाहिए मदद करने के लिए , इसलिए चाची ने अपनी छोटी बहन मीना को बुला लिया था। वर्षा और कृपा की तरह वह भी उन्हें मौसी ही कहती थी। मीना मौसी हमेशा गर्मी की छुट्टियों में अपने चारों बच्चों के साथ आ जाती थी , सारे बच्चे खूब हो- हल्ला करते थे। पर इस बार मौसी अकेले ही आयीं थीं। मीना मौसी चाची जितनी सुन्दर तो नहीं थी लेकिन चाची जितनी मोटी भी नहीं थी। मौसी चाची से थोड़ी लंबी भी थीं, और बेमतलब का बोलती भी ज्यादा थी। मौसी , चाचा और चाची की शादी में खूब मदद कर रही थी , कभी कभी चाचा और मौसी बाज़ार के काम संभालते तो चाची घर पर तैयारी करती , और कभी चाचा चाची बाहर जाते तो मौसी घर संभाल लेती। 
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पर आजकल कुछ नया ही देखने को मिल रहा था कनिका को। आजकल चाचा के लिए रोटी मौसी सेकने लगी थी और चाचा भी मौसी की रोटियों की तारीफ़ करते करते 2 रोटी ज्यादा ही खा रहे थे। मौसी धीरे धीरे पूरा घर संभालती चली जा रही थी। अब इतनी छोटी बच्ची भी नहीं रही थी कनिका की कुछ समझ न आये। पर हंसती हुयी चाची और मौसी को देख कर वो अपने विचारों को स्थगित कर देती थी मन का वहम समझ कर। शादी में मीना मौसी सारे चाची के गहने पहन कर इतराती रहीं , और चाचा अपनी साली को देख कर। इसी गहमा गहमी में कृपा दीदी की भी शादी हो गयी। मीना मौसी भी अपने घर वापस चली गयीं , कनिका ने चैन की साँस ली। 
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कनिका की परीक्षा नजदीक आ रही थी, वो और ज्यादा पढ़ाई में मशगूल हो गयी। आज कॉलेज से आते वक्त देरी हो गयी थी, चाची अकेली बैठी होंगी, सोचते हुए जैसे ही घर के अंदर कदम रखा सामने मीना मौसी सपरिवार बैठी हुईं दिखी । कनिका को देखते ही उठ कर बोली मीना मौसी , देख कनिका तेरी चाची को अब अकेले नहीं रहना होगा, तेरे मौसा जी ने अपना तबादला यहीं करवा लिया है, अब हम लोग यहीं रहेंगे , अगले चौराहे के पास वाली गली के कोने पर जो मकान है न वो किराए पर ले लिया है, अब तो एक दुसरे के घर आते जाते ही रहेंगे। न जाने क्यों कनिका को ये बात कुछ अच्छी नहीं लगी। पर बड़े लोगों के बीच वो कहे भी तो क्या। कपडे बदलने के बहाने वो सीधे ही अपने कमरे में चली गयी। 
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घर में तेजी से बदलाव हो रहे थे , अब मौसी अक्सर घर पर आने लगी थी , चाचा अपने सारे काम जो पहले चाची से करवाते थे, वो काम अब मौसी करने लगी थी। चाचा के लिए फल काटने से लेकर उनके कपडे इस्त्री करने तक। 
कॉलेज से आते समय कभी कभी उसको चाचा का स्कूटर मौसी के घर के बाहर खड़ा दिख जाता था। आज फिर कनिका को अपनी फ्रेंड के साथ नोट्स बनाते देर हो गयी थी , रिक्शे वाले ने जैसे ही चौराहे से रिक्शा घुमाया, उसकी नज़र मौसी के घर के सामने खड़े चाचा के स्कूटर पर पड़ गयी । घर पहुंची तो चाची रोज़ की तरह तैयार बैठी थी , पर आज उनके चेहरे पर अजीब सा सूनापन था, ना कोई ख़ुशी ना चमक , मूर्ती की तरह बैठी थी कुर्सी पर। कनिका ने अनजान होकर पूछा , चाचा नहीं आये अभी तक ? 
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चाची ने उसाँस भरते हुए कहा, "नहीं , लगता है कहीं काम में फंस गए होंगे। " 
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कनिका का गुस्सा उबाल पड़ा , " कोई काम में नहीं फंसे हैं, चाचा का स्कूटर मौसी के घर के सामने खड़ा है " 
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चाची के चेहरे से रहा बचा रंग भी उड़ गया , धीमे से स्वर बोली, " तो होगा कुछ काम तेरे मौसा जी से "
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" मौसा जी से रोज़ रोज़ क्या काम होगा, चाचा की कपड़ों की दूकान , मौसा जी कांच की फैक्ट्री के सेल्स मेनेजर, दोनों का आपस में दूर दूर का ताल मेल नहीं हैं , आप कुछ कहती क्यों नहीं " 
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कनिका की बात सुनकर चाची का जैसे सब्र का बाँध टूट गया और वो फुट फुट कर रोने लगी। कनिका का गुस्सा काफूर हो गया और उसका दिल भर आया , बचपन से अब तक चाची ने बहुत बार उसे गले लगाया था, आज जैसे उनके रिश्ते फेरबदल हो गए हों, आज कनिका चाची को गले लगा कर चुप करा रही थी। 
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कुछ देर के बाद कनिका ने कहा " चाची लेकिन रोने से क्या होगा, कुछ तो करना होगा ना। "
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चाची ने रुआंसे स्वर में कहा , मैं क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आता , अब इस उम्र में ये सब बातें फैलेंगी तो दोनों बेटियों के ससुराल वाले क्या कहेंगे। 
चाचा से बात करो ना फिर , कनिका ने सुझाव दिया। 
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वो भी कर के देख लिया , कुछ सुनने को तैयार नहीं , बोल रहे हैं, घर में रहना है तो मुंह बंद कर के चुप चाप रहो , उदास चाची ने कहा। 
कनिका सोच में पड़ गयी , चाचा से वह खुद भी कैसे बात करें। ना जाने मौसी ने कौन सी जादू की छड़ी घुमाई है। 
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मौसी की हिमाकत बढ़ती जा रहीं थी , रोज़ नए नए गहने , कपडे , कहाँ से आ रहे हैं उनके पास ये समझना मुश्किल नहीं था। मौसी नया घर खरीद रही हैं..सुन कर अवाक रह गयी कनिका। मीना मौसी अपने जाल में चाचा को फांस कर लूट रहीं थी , और चाचा बेवकूफों की तरह बिना कुछ सोचे समझे सब कुछ बर्बाद कर रहे थे। 
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चाची का साज श्रृंगार ख़तम होने लगा , मायूस सी चाची हताशा में घिरने लगी। 
कनिका के सब्र का बाँध टूटने लगा, उसने खुद ही मौसी से बात करने की ठानी और जा पहुंची मौसी के घर। 
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ये सब क्या हो रहा है मौसी ?
मौसी जैसे अनजान बनकर बोली," क्या हो रहा है कनिका , किस बारे में पूछ रही है ?
तैश में आकर कनिका ने कहा " एक म्यान में दो तलवारे नहीं रह सकती मौसी, आप खूब समझ रही हो मैं क्या पूछ रही हूँ , ज्यादा अनजान मत बनो "
मौसी ने उतनी ही ढिठाई से जवाब दिया , बूता होना चहिये संभालने का, फिर दो क्या और चार क्या , अपने काम से काम रख , मेरे बीच में टांग मत अड़ा "
मौसी के ऐसे जवाब की उम्मीद बिलकुल नहीं थी कनिका को , जब इंसान बेशर्म हो जाए और हर मर्यादा को ताक पर उठा कर रख दे , तब ऐसे इंसान से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है 
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" इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा मौसी " कह कर कनिका उस वक्त तो वहां से आ गयी , लेकिन उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था। 
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दो दिन बाद बारहवीं की परीक्षा शुरू हो रही थी कनिका की , तो यही उचित समझा की एक बार परीक्षा हो जाए फिर दोनों दीदी को बताना ही पड़ेगा। 
पर हम सोचते कुछ हैं और होता कुछ है , परीक्षा के आखिरी दिन, कनिका की सारी सहेलियों ने दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना लिया , कनिका को बहुत ज़रूरी काम थे, इसलिए वो जाना नहीं चाहती थी, घूमने से ज्यादा ज़रूरी दीदी से बात करनी थी। कृपा दीदी दिल्ली में ही रहती थी, उनसे वहीँ जा कर मिल कर सारी बात बता सकती है, ये सोचकर उसने दिल्ली जाने के लिए हाँ कर दी। 
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कनिका दिल्ली चली गयी। दिल्ली पहुँच कर उसे पता चला की चाचा चाची और मौसी , और कुछ लोग मिल कर उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर जा रहे हैं। 
अचानक कैसे जा रहे हैं, पहले तो कुछ नहीं बताया , सोच में पड़ी कनिका मौका ढूंढ रही थी कैसे सहेलियों से बच कर दीदी के पास जाए और सारी बातें बताये। 
दूसरे दिन वो दीदी के घर पहुंची तो वहां अफरा तफरी मची हुयी थी। और कृपा दीदी रोये जा रही थी। 
क्या हुआ दीदी को ? कनिका ने घबरा कर पूछा 
जीजाजी ने कहा " तुम्हे पता नहीं चला, तुम्हारी चाची की उज्जैन के रास्ते में दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गयी । "
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क्या ? ....... सन्न रह गयी कनिका , ऐसा कैसे हो सकता है , अच्छी भली चाची यूँ अचानक कैसे मर सकती हैं। विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कनिका। जो बताने आयी थी वो बात तो कह भी नहीं सकी थी। 
उलटे पाँव दीदी जीजाजी के साथ ग्वालियर वापस आ गयी। 
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घर पूरा रिश्तेदारों से भरा हुआ था। पिताजी और नयी माँ भी आ चुके थे। काम वाली मुन्नी जीजी धीरे से कनिका के कान में बोली , " जिस समय चाची को बस से उतार कर लाये थे, उनका चेहरा हरा - हरा सा हो रहा था। कोई बोला की हाथ की अंगूठी मैं हीरा नहीं है , शायद वो चाट लिया, कोई कह रहा था की रास्ते में प्रसाद खाते ही तबियत बिगड़ने लगी थी।"
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पर असलियत किसी को नहीं पता। डॉक्टर ने आ कर सिर्फ दिल का दौरा पड़ने की पुष्टि कर दी और बात खत्म। 
चाची की मृत सफ़ेद देह अब कुछ नहीं कहेगी , कैसे पता चलेगा की क्या हुआ ? क्या मीना मौसी ने चाची को ज़हर दे दिया था ? या चाची ने सच में हीरा निगल लिया था ?
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चाची की देह से लिपट कर चाचा बिलख बिलख कर रो रहे थे, अब न जाने वो दुःख और पश्चाताप के आंसू थे या मगरमच्छी नकली आंसू। कनिका को नफरत हो गयी चाचा से, जी में आया की चाचा को जोर से हिला कर कहे ,ये सब आपकी वजह से हुआ है , पर शब्दों को बस मुंह में ही चबा कर रह गयी । 
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मौसी दूर बैठी पल्ले से आंसू पोछती जा रही थी। पर कनिका की आँखों से कुछ छुपा नहीं था। मौसी के नाटक पर और कोई विश्वास भले कर ले, कनिका को कतई विश्वास नहीं था। उन नकली आंसू के पीछे छुपा चुडैल का चेहरा साफ़ नज़र आ रहा था कनिका को। 
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आज चाची को लाल साडी, बिंदी और चूड़ियों से सजा रहे थे, जिनके अब कोई मायने नहीं थे। 
कनिका, चाची के खामोश , सफ़ेद , चेहरे की तरफ देख कर मन ही मन बुदबुदायी. " चाची चुड़ैल आज भी होती हैं , बस उसका स्वरुप बदल गया है , आज की चुड़ैल का कोई धर्म ईमान नहीं होता , कहानी वाली चुड़ैल सात घर छोड़ कर वार करती थी, ये चुड़ैल तुम्हे ही खा गयी। "
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चाची के हरे से सफ़ेद होते चेहरे का राज़ भी उन्ही के साथ चला गया। कनिका दुबारा अनाथ हो गयी थी , अब वह यहाँ नहीं रुकेगी , पिताजी के साथ वापस गांव चली जायेगी। लेकिन दुःख और कुछ न कर पाने का अफ़सोस उसे बहुत अंदर तक तोड़ रहा था। 
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" साक्षात्कार " 
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मुंबई महानगर के कल्याण पूर्व इलाके की एक बिल्डिंग के चौथे माले पर ,24 वर्षीय कला अपनी कंप्यूटर टेबल पर कागज़ो को उलट पुलट रही है। आज उसका एक नवोदित मिनिस्टर के बेटे के साथ साक्षात्कार है । उसे आशा है की इस साक्षात्कार के बाद उसके करियर का ग्राफ अच्छा हो जाएगा और " हर दिन ख़ास " न्यूज़ चैनल की तरफ से उसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण कार्य मिलेंगे।
आखिर उसे वो प्रश्नोत्तर वाला कागज़ मिल ही गया जो उसने मिनिस्टर के बेटे के साक्षात्कार के लिए तैयार किया था. फोल्डर मैं सारे कागज़ जमा करके, पेन, माइक्रोफोन , कैमरा , आदि सब चेक किये। पर्स उठाया और चप्पल पहन ही रही थी. की माँ ने टोका ,
" तुम्हे याद है न कल हमे लड़के वालो को फाइनल जवाब देना है.
शादी के बाद ये जर्नलिस्ट की जॉब नहीं कर पाओगी. "
पिताजी ने भी माँ की हाँ मैं हाँ मिलायी,
“कला समझो बात को, बहुत अच्छा लड़का और घर है ,और ये काम जो तुम कर रही हो, बिलकुल भी सेफ नहीं है ।“
ठीक है माँ, आज का इंटरव्यू तो कर आने दीजिये , जवाब तो कल देना है उनको.
अभी मुझे जल्दी जाना है, कह कर वो जल्दी से लिफ्ट के पास पहुंची।
मुंबई महानगरी मे सबसे बड़ी सुविधा लोकल ट्रैन की होती है ।
कल्याण स्टेशन पर पहुँच कर उसने मुंबई सी एस टी की फ़ास्ट लोकल ली और 10 बजे तक मिनिस्टर के बेटे के ऑफिस पहुँच गयी। पर वहां जा कर पता चला की साहबजादे अभी तक आये ही नहीं है।
3 घंटे तक ऑफिस के बाहर इंतज़ार करके पता चला की जनाब छुट्टी मानाने विदेश चले गए और अब अगले हफ्ते ही मिलेंगे। मन मसोस कर वापस रेलवे स्टेशन पहुंची तो सामने स्लो लोकल थी कल्याण की, बेमन से उसी में चढ़ गयी। दोपहर के दो बज गए थे, भूख भी लग रही थी , पर अब घर जा कर ही खाउंगी सोच कर सीधा ट्रैन में आ गयी थी।
वापसी की ट्रैन दोपहर में कभी कभी खली मिल जाती है,
सुकून की सांस ले कर उसने सामने की सीट पर पेर फैलाये और सर खिड़की पर टिकाया ही था ,कि प्लेटफार्म पर से एक सफ़ेद सूट पहने अधेड़ उम्र की महिला ने उससे पुछा
" डोम्बिवली रुकेगी क्या ?"
कला ने उस को ध्यान से देखते हुए कहा की, " जी हाँ स्लो है, तो रुकेगी ही।"
वो औरत मुस्कुरा कर अंदर आई और आकर उसके सामने वाली सीट पर बैठ गयी।
थोड़ी देर मैं एक मध्यम वर्गीय करीब तीस - पैंतीस वर्षीय औरत, पीला पहने और हाथ में बड़ा सा बैग ले कर दाखिल हुयी और खाली जगह देख कर खुश हो कर दूसरी तरफ की खिड़की के पास बैठ गयी।
कला ने घडी देखी , ट्रैन को चलने में अभी और 5 मिनट थे।
तभी एक बेहद खूबसूरत और खूब सारे गहने पहने औरत उनके कम्पार्टमेंट में चढ़ी तो कला और बाकी बैठी हुईं दोनों औरतें उसे आश्चर्य से देखने लगी। वो कहीं से भी ट्रैन मैं सफर करने वाली औरतों में से नहीं लग रही थी। ट्रैन का इंजन दूसरी सीटी बजा रहा था और ट्रैन प्लेटफॉर्म पर रेंग ही रही थी, की हाथ में बिंदी क्लिप कांटे का डिब्बा लिए ट्रैन में सामन बेचने वाली एक काली सी लड़की भी दौड़ के चढ़ गयी और जल्दी ही ट्रैन पटरियों पर दौड़ने लगी।
कुछ देर तक सब अपने अपने ख्यालों में मग्न रहे।
कला ने आँखें बंद कर ली, और कुछ देर बाद आँखें खोली तो देखा कि काली लड़की अपने सामान का डिब्बा सफ़ेद सूट वाली औरत को दिखा रही थी, पीले सूट वाली भी डिब्बे में से अपनी मैचिंग का सामान छांट रही थी। काली लड़की की आँखें पैसे वाली औरत के गहनों का नाप टोल कर रही थी। और उसका हाथ सोई हुयी अमीर औरत के पर्स की ज़िप पर धीरे धीरे बढ़ रहा था।
कला ने कस कर लड़की का हाथ पकड़ लिया, क्या कर रही है, रुक पुलिस को फ़ोन करती हूँ, चोरी करती है । सोई औरत जाग गयी और बाकी दोनों भी अचानक हुयी इस क्रिया पर सकपका गयी. काली लड़की माफ़ी की गुहार करने लगी, माफ़ कर दीजिये, मेरे छोटेछोटे छोटे बच्चे हैं , मैं ही उनके लिए सब कुछ हूँ।
कला ने उससे सवाल किया, जब ऐसा है तो फिर चोरी करते वक्त नहीं ख्याल आया की पकड़ी गयी तो बच्चों का क्या होगा। लड़की रुआंसी हो कर बोली आप लोग बड़े लोग हो, आप नहीं जानती एक गरीब को ज़िन्दगी मैं क्या क्या करना पड़ता है।
कला ने उसको प्रश्न किया " चोरी करके पैसा कमाएगी उससे क्या भला होगा तेरा ?"
काली लड़की गिड़गिड़ाते हुए बोली "नहीं नहीं मैं हमेशा चोरी नहीं करती, कल मुझे बच्चे की स्कूल की फीस भरनी है और मुझे कहीं से उधार भी नहीं मिला "
कला ने फिर पूछा " अच्छा और क्या क्या करती है तू "
अमीर औरत अब अपना पर्स कस कर पकडे बैठी थी और बाकी दोनों भी काली लड़की का चेहरा पढ़ रही थी.
कला ने सोचा मिनिस्टर का बेटा तो नहीं मिला था, इसी लड़की की कहानी सुन लेती हूँ कुछ देर के लिए। ट्रैन को 2 घंटे लगेंगे कल्याण तक।
काली लड़की ने अपना साज सामान का डिब्बा ज़मीन पर रखा और खुद भी पेर पसार कर बैठ गयी " मेरा नाम आशा है, मैं मुम्ब्रा में रहती हूँ एक बस्ती में, 7 साल पहले मैंने लव मैरिज की थी ( लव मैरिज बोलते समय उसकी लजीली मुस्कान देख कर कला को बहुत हंसी आयी , सोच ने लगी ये लोग भी लव मैरिज करते हैं , समाज के इस वर्ग को आज पहली बार नजदीक से देख रही थी )
आशा बोलती जा रही थी - घर वालो को वो लड़का पसंद नहीं था , वो मेरी जात वाला नक्को मैडम , पर कंपनी में नौकरी करता था। मैं उसके लिए अपने घरवालों से झगड़ा की, शादी बनाई , कुछ टाइम तक ठीक से नौकरी करता रहा, पगार भी अच्छी थी । हम लोग भाडे की खोली में रहते थे, अपनी खुद की खोली लेने के लिए मैं भी फिर 4 घर का साफ़ सफाई का काम पकड़ ली। खोली लेने के बाद उसको एक नया दोस्त मिला और उसके साथ उसको दारु की लत लग गयी , आधी पगार तो वो दारू में ही उड़ा देता था । कितना समझाई उसको, पर कोई असर नहीं। पहले मुझको एक लड़का हुआ फिर दुसरे साल एक लड़की,दोनों बच्चों को मैं ही संभालती हूँ। वो कभी काम पर जाता, कभी नहीं, पगार भी काम मिलने लगी।
उसकी माँ को भी बोला , पर वो बुढ्ढी क्या करेगी, उसका बेटा इच निकम्मा निकल गया ।
मेरे माँ बाप से तो बात चीत भी नहीं। पर ना मैडम, मैंने सोचा है, मैं अपने बच्चों को बहुत पढ़ाऊंगी और बड़ा अफसर बनाउंगी। अपने बच्चों के लिए ही मैं कभी कभी चोरी कर लेती हूँ, ज्यादा नहीं बस कभी स्कूल की फीस या घर का सामान लाने के लिए। देखो मैडम , मैं कभी भी किसी गरीब के पैसे चोरी नहीं करती, अमीरो के लिए हजार , दो हजार कम हो जाने से भी कोई फरक नहीं पड़ता।
कला और बाकी तीनो औरतें उसकी बातें सुन रहीं थी। . कला ने पुछा, "अभी तेरा पति किधर काम करता है? "
आशा - " मालुम नहीं , अब तो वो मेरे घर में भी नहीं रहता। वो एक दूसरी औरत के पीछे पीछे घूमता रहता.है ।उसके साथ ही खोली में रहता है , मेरी पड़ोस वाली कहती है, उसने उसके सर पर जादू किया है और उसको फांस लिया है। पिछली महीने घर आया था , तो उस औरत के लिए मुझसे भी झगड़ा किया।
कला ने उसको आश्चर्य से कहा, " अरे ऐसा है , तो तू उससे तलाक ले ले, अलग हो जा, दूसरी शादी कर, जिससे बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी मिले "
आशा - " तलाक ले कर अब क्या करुँगी मैडम , मेरे बच्चों मैं उसकी जान बसती है, उनको मिलने आता है । मैं तो उसको अपने पास भी नहीं आने देती। मेरा नसीब ही खराब था ,कि उससे लगन की। जिस दिन वो औरत उसको लात मारेगी तब आएगा मेरे पास ही। और नहीं आएगा तो मरे जा कर किधर भी। मेरे को अब और किसी भी आदमी की ज़रुरत नहीं , मैं अपने बच्चों के लिए अकेले ही सब कुछ कर लूंगी। घर के कामो के साथ में ट्रैन में सामान भी बेच कर और ज्यादा पैसे कमा रही हूँ। भीड़ वाली ट्रैन में पर्स से चोरी करना आसान होता है।
कला - तुझे डर नहीं लगता, पकड़ी गयी तो जेल जायेगी , फिर तेरे बच्चों का क्या होगा ?
आशा - नहीं मैडम , बस रुपये निकलती, पूरा पर्स नहीं उठाती। कभी कभी करती हूँ जब पक्का मौका मिलता और खतरा नहीं दिखता। आप जो चाहे बोलो , पर ये सब कुछ मैं अपने बच्चों के वास्ते ही करती हूँ। मैं आप लोगो की तरह उतनी खुशनसीब नहीं हूँ, पर मेरे बच्चे जरूर एक दिन अपनी गाडी में घूमेंगे।
कला उसके चेहरे में अनगिनत भाव देख रही थी, गुस्सा, आत्मविश्वास, साहस, हाथ की सफाई की कारीगर , और मन में छुपा एक अनकहा इंतज़ार , एक आस पति के आने की , और अकेले अपने बल पर आगे बढ़ने की हिम्मत। वो एक बेहद गरीब तबके की स्वाबलंबी औरत है।
ट्रैन अगले स्टेशन पर रुक रही थी, आशा अपना सामन उठा कर चलने लगी।
चलती मेम साब , दूसरी ट्रैन पकड़ूँगी , उस में भीड़ होगी तो कोई काम बनेगा ,
आप लोगो के बीच मैं तो आज मेरी बोहनी भी नहीं हुयी।
सबसे खामोश बैठी खूबसूरत अमीर औरत ने अपना पर्स खोला और खुद 2000 का एक नोट निकाल कर आशा को देने लगी।
आशा ख़ुशी ख़ुशी 2000 रुपये लेकर दुआएं दे कर स्टेशन पर उतर गयी।
ट्रैन फिर रफ़्तार पकड़ ली थी , पीले सूट वाली माध्यम वर्गीय औरत बोली, आपने उसको इतने सारे रूपये क्यों दे दिए 100 - 200 ही दे देती बहुत था।
अमीर औरत हंसने लगी, पैसे मेरे पास बहुत हैं, दुआएं ज्यादा जरूरी हैं मेरे लिए ।
जो दिखता है वो जरूरी नहीं अंदर से भी वैसा हो। कभी कभी ऊपर सिर्फ एक कवच होता है। , शायद उसकी दुआएं ही मेरे काम आ जाएँ , उसकी ज़िन्दगी मुझे अपने जैसी ही लगी।
उसके इस कथन पर सभी चौंक गए, कहाँ वो आशा, कहाँ ये , इतनी खूबसूरत सारी , जेवर, औरअतुलनीय सुंदरी,इसको क्या कमी हो सकती है।
कला ने उसको पूछा , " आप कहाँ तक जा रही है , आप ट्रैन मैं कैसे ??? " अजीब लगा कला को भी उसका खुद का प्रश्न, जैसे सुन्दर अमीर लोगो के लिए ट्रैन बनी ही न हो।
मेरा नाम सलोनी है , मैं घाटकोपर अपनी किटी पार्टी के लिए जा रही हूँ, मेरी कार अचानक ख़राब हो गयी, और आज टैक्सी की हड़ताल है इसलिए मुझे मजबूरन ट्रैन में ही आना पड़ा।
और आप लोग ?
सबसे पहले कला बोली , " मेरा नाम कला है , मैं एक जर्नलिस्ट हूँ, कल्याण में रहती हूँ। नरीमन पॉइंट पर एक इंटरव्यू लेना था, जो हो ना सका , नेक्स्ट वीक , फिर से जाना होगा।
पीले सूट वाली ने अपना नाम कोकिला बताया और कहा की वो कल्याण तक जायेगी।
सफ़ेद सूट वाली अधेड़ उम्र की महिला ने अपना नाम रजनी बताया और कहा की वो डोम्बिवली उतरेगी।
कला ने अब और ध्यान से सलोनी को देखा , तो उसे लगा की वो पहचानी हुयी लग रही है।
"सलोनी जी, मुझे आप को देख कर ऐसा लग रहा है जैसे मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है ? , आप अपने बारे में और कुछ बताइये प्लीज् , और आपने ये क्यों कहा की आपकी ज़िन्दगी उस कामवाली आशा से मिलती जुलती है।
सलोनी ने हिचकिचाते हुए कहा , आप जर्नलिस्ट हैं, मैं अगर कुछ भी कहूँगी तो ठीक नहीं होगा। वैसे आपने मेरी तस्वीर जरूर ही किसी अखबार या मैगज़ीन में देखी होगी।
अरे हाँ , याद आया कला को, सलोनी ही तो मशहूर मोनार्क बिल्डर्स के मालिक बलराज आहूजा के छोटे बेटे की पत्नी है।
नहीं नहीं सलोनी जी , आपसे वादा है , आप जो भी कुछ कहेंगी, मैं किसी से नहीं कहूँगी,
बहुत उत्सुकता हो रही थी कला को सलोनी के बारे मैं जानने के लिए....
सलोनी कहने लगी " मैं एक माध्यम वर्गीय परिवार की बेटी थी, मेरे चाचाजी के मोनार्क बिल्डर्स के साथ बिज़नेस रिलेशन्स थे। उस तरह से उनके छोटे बेटे विक्की का रिश्ता मेरे लिए आया। उन लोगो ने मेरी खूबसूरती की वजह से बिना एक पैसा लिए शादी के लिए हाँ कर दी, और दोनों तरफ की शादी का खर्च भी उन्होंने ही उठाया। लेकिन शादी के बाद पता चला की मेरे पति बहुत शराब पीते है। अक्सर दोस्तों के साथ क्लब्स ओर पार्टीज के लिए रात को भी घर नहीं आते । बहुत सी गर्ल फ्रेंड्स भी हैं। उसको मेरी ज़रुरत ही नहीं। में दिखाने के लिए उनके घर की बहु हूँ।
बहुत पैसा है , आलिशान फ्लैट है। घर पर बहुत से नौकर हैं , हम सभी के पास अपनी अपनी कार हैं , कहीं भी जाना हो ड्राइवर है। अलमारी बेशकीमती कपड़ो से भरी हुयी हैं , और उनके मैचिंग के बहुत सारे गहने भी हैं। पर सब कुछ अधूरा है। मैं शादी शुदा होते हुए भी कुंवारी ही हूँ ।
सब कुछ होते हुएभी कुछ नहीं है। सभी को लगता है . मैं बहुत भाग्यशाली हूँ , मुझे क्या कमी है। लोग मेरी ऊपरी शान शौकत से जलते हैं। मैं कहती हूँ ऐसी किस्मत किसी की ना हो।
शायद जिसके पास जो नहीं उसको उसी की कमी खलती है। हर चीज़ की कमी पैसे से नहीं पूरी हो सकती है।
कला को सलोनी के बारे में जानकार दुःख हुआ , उसने कहा " आप कुछ और काम क्यों नहीं करती ?
जिसमे आपका मन लगे या जो आपको अच्छा लगे।
सलोनी - सही कहा आपने , पर बड़े घर की बहु होने का एक और नुक्सान है , की बाहर शॉपिंग करने जा सकते हैं पर कोई काम नहीं कर सकते। फिर मेरी पढाई भी ज्यादा नहीं हुयी है सिर्फ ग्रेजुएशन किया है।
कला - फिर आप अपना समय कैसे व्यतीत करती हैं ?
सलोनी -कपड़ों और जेवर की शॉपिंग, ब्यूटी पार्लर , या किटी पार्टीज। और जिस दिन कुछ नहीं होता तो खाना और सोना।
कला के लिए ऐसी ज़िन्दगी किसी आश्चर्य से काम नहीं थी, कोई ऐसे कैसे जी सकता है।
ऐसे दिशा हीन जीवन, निरुद्देश्य जीवन में कोई उद्देश्य तो अवश्य होना चहिये। पर वो क्या हो सकता है ?
कुछ देर सोच कर कला ने सलोनी से कहा, की आपको जेवरों की अच्छी समझ है., आप ज्वेलरी डिज़ाइन कीजिये , बिना बाहर जाए, घर पर ही , कोशिश तो कीजिये। .... और अगर जरूरत हो तो मैं आपकी मदद करुँगी।
सलोनी के चेहरे पर एक प्यारी मुस्कराहट आयी , शायद कला की बात उसे भी अच्छी लगी।
इसलिए उसने कला का नंबर भी ले कर सेव कर लिया।
घाटकोपर स्टेशन पर उतर कर सलोनी से फिर मिलने का वादा करके चली गयी।
ज़िन्दगी में कौन कब किसको मिलता है , एक आशा की किरण एक प्रेरणा कभी कभी ज़िन्दगी की राह बदल देती है।

सफ़ेद सूट वाली रजनी बर्फ की तरह सुन्न सी बैठी थी।
कला ने उसको पूछा , क्या हुआ आंटी आप ठीक हैं ?
हाँ मैं ठीक हूँ , बस यूँही सोच रही थी तुम्हारी बात पर " निरुदेश्य " , जाने कितने लोग ऐसे ही जीवन जीते हैं।
कला -पर ये तो गलत है, जीवन में कुछ न कुछ उद्देश्य तो होना ही चाहिए। आपके हस्बैंड क्या करते हैं आंटी।
रजनी ने सर झुका कर कहा " वो अब इस दुनिया में नहीं हैं, एक साल पहले उनकी डेथ हो गयी हार्ट अटैक से।
कला - ओहो ! बहुत दुःख हुआ जानकार। माफ़ कीजिये।
रजनी मुस्कुराने लगी।
कला आश्चर्य से उसका चेहरा देख रही थी , ये दुःख की बात पर हंस रही हैं ?
" आप हंस रही हैं ???
रजनी ने कहा, हाँ , इतने सालों के बाद अब मैंने जीना शुरू किया है।
कला - वो कैसे ? मैं समझी नहीं ?
रजनी - तुम बहुत छोटी हो , न जाने मेरी बात समझोगी या नहीं ? . मेरे पति एक कंपनी मैं सेल्स मैनेजर थे।
यूँ तो वह देखने मैं बहुत ही खूबसूरत थे, सबसे बहुत अच्छी तरह से बात भी करते थे पर मेरे साथ उनका व्यवहार अलग था। मुझे एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते थे। ऑफिस से घर आने के बाद हर समय मुझे उनके पास ही रहना होता था
कला - मगर ये तो अच्छी बात है, शायद वो आपसे बहुत ज्यादा प्यार करते थे।
आप इस उम्र मैं भी इतनी सुन्दर हैं।
रजनी - हाँ , पर हर चीज़ की अतिश्योक्ति बुरी होती है , प्यार की भी।
हद से ज्यादा प्यार भी घुटन देता है। जब आपको हर सांस उनकी मर्ज़ी से लेनी पड़े। जब वो कहें तो उनके ही साथ खाना खाओ, जब वो कहें तो कहीं जाओ। जो वो कहें वही पहनो। अगर उनकी बात ना मानो तो सजा के रूप में खाना नहीं खाने देते थे। यहाँ तक की रसोई मैं ताला लगा देते थे।
मेरा बेटा दिमाग से कमजोर था, अविकसित। सिर्फ शरीर बड़ा हो रहा था उसका, 12 साल के बच्चे के शरीर में 3 साल के बच्चे का दिमाग था। इतना बड़ा होकर भी बोतल से दूध पीता था।
कला- था मतलब ? अब नहीं है वो ?
रजनी - नहीं , 4 साल पहले बेटा भी गुज़र गया था। मेरे साथ मेरे बच्चों को भी सजा मिलती थी।
मेरे बेटे को मेरी ज्यादा ज़रुरत थी। पर मेरे पति को अपनी मनमानी करनी होती थी।
रात को 9 बजे के बाद कुछ भी ना करो और उनके साथ ही समय बिताओ।
फिर चाहे बच्चों की परीक्षा हो या घर में मेहमान हों। उनको किसी से मतलब नहीं। उनको 9 बजे बैडरूम में बस मैं चाहिए ही चाहिए।
और ये बात शादी के शुरू की नहीं. , अब तक थी , जब की मेरी बड़ी बेटी की शादी हो गयी थी तब तक।
कितनी शर्मिंदगी और अपमान महसूस होता था मुझे। शर्म और ग्लानि , अपने ही बच्चों के सामने लगता था धरती फट जाए और मैं उस में समां जाऊं।
मेरे ना करने पर वो मेरे कमजोर बच्चे को कमरे में बंद कर देते थे, उसे दूध नहीं देने देते थे।
यहाँ तक की मुझे भी कितनी बार 2 घंटे तक धूप में खड़े होकर माफ़ी मांगनी पड़ती थी।
मेरी चारो बेटियाँ डर के कारण कांपती थी अपने पिताजी के सामने।
कला की आँखें विस्मय से फटी जा रही थीं , अविश्वसनीय सा लग रहा था उसे।
ये तो बहुत अन्याय सहन कर रही थी आप ?
आपने अपनी परेशानी कभी किसी से नहीं कही ?
रजनी- सब जानते थे पर कोई कुछ नहीं कहता था। उनकी मर्जी अनुसार सब हो तो सब ठीक , वरना सजा।
बेटे को एक अजीब बीमारी हो गयी थी, उसकी हड्डियां गलने लगी थी, बहुत कमजोर होता जा रहा था ,
चलने में भी गिर जाता था। 16 साल का होते होते उसके पैरों में से बिलकुल जान ख़तम हो गयी थी,
व्हील चेयर के सहारे ही चल पता था।
मेरी बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी। दोनों छोटी बेटी और बेटा ही थे अब घर मैं।
ऐसी ही एक रात जब मैं उनके साथ थी, बेटियां सो गयी थी अपने कमरे में.,
बेटे ने शायद उठने की कोशिश की थी बिस्तर से और ज़मीन पर गिर गया ,
जब तक मैंने देखा, वो इस दुनिया से जा चुका था। मुक्ति मिल गयी थी उसे हमेशा के लिए।
कला - बहुत ही दुःख की बात है। फिर क्या हुआ ?
रजनी - अब मेरी दोनों छोटी बेटिया थे , एक दिन मैंने दोनों छोटी बेटियों के साथ घर छोड़ कर अपने भाइयों के पास आयी , फिर से सब लोगो ने मिल कर बात चीत की पूरा शर्त नामा लिखा गया , पर कुछ असर नहीं होता ऐसे लोगो पर।
हमारे यहाँ लड़की का कोई घर नहीं होता। भाइयों के पास भी कितने दिन रहती।
पर उसके बाद एक दिन उनको अचानक हार्ट अटैक हुआ , और हम आज़ाद हो गए।
क्या कहूं मैं ये ख़ुशी की ही बात है। मेरा दिल जानता है ऊपर से जरूर मुझे रोने का दिखावा करना पड़ा ,
पर मन खुश था। शांत और राहत से भरपूर।
अब ही तो हमने जीना शुरू किया है, खुल कर सांस ले सकते हैं।
अब मैं अपनी दोनों छोटी बेटियों के साथ रहती हूँ। जल्दी ही तीसरे नंबर की बेटी की भी शादी हो जायेगी।
चौथी नंबर की बेटी डेंटिस्ट्री की पढाई कर रही है। मुश्किलें हैं , पैसे की तंगी भी हो जाती है ,
पर जीवन मैं सुकून है।
कितनी अजीब बात है, हम अपने सबसे निकटतम रिश्तों की अहमियत नहीं समझ पाते।
जिस खूबसूरत रजनी के पति ने उसका इस तरह से अपमान किया
अगर ज़िन्दगी में पत्नी को एक साथी के रूप में जाना और समझा होता, तो आज पति के ना होने की ख़ुशी की जगह उनकी कमी महसूस करती। पर उनके पति उनके दिल में अपनी जगह नहीं बना पाए थे।
जबरदस्ती अपनी मौजूदगी को मनवाने वाले लोगों की कोई जगह नहीं रहती। न जीते जी, न मरने के बाद।
आज भी रजनी ,अकेले मुश्किलों का सामना कर रहीं थी पर आज़ादी की सांस लेती हुयी।
कोकिला के चेहरे पर गुस्सा था। बोली सारे आदमी एक जैसे ही होते हैं खुदगर्ज़ और जानवर।
रजनी और कला दोनों उसकी आँखों में नफरत देख रही थी ।
रजनी ने कोकिला के हाथ पर अपना हाथ रखा और कहा , हाँ शायद अकेले रहना ज्यादा बेहतर है एक गलत रिश्ते में रहने से।
कोकिला- हाँ इसलिए मैं अकेले ही रहती हूँ अपनी दोनों बेटियों के साथ।
रजनी ने कोकिला से पुछा ' क्या हुआ तुम्हारे साथ ?
कोकिला - मेरी ज़िन्दगी में शादी का सुख ही नहीं है । दो बार डाइवोर्स हो चूका मेरा , अब मुझे कोई रिश्ता नहीं बनाना।
रजनी और कला दोनों चुपचाप उसके चढ़ते उतारते भाव देख रहीं थी
कला - अरे , दो बार शादी और दोनों ही बार डाइवोर्स ??
कोकिला - हाँ, पहली शादी मैंने अपनी मर्जी से अपने घरवालों से छुप कर की थी। तब मैं सिर्फ 17 साल की थी , बालिग़ भी नहीं थी। मुझ पर प्यार का ऐसा खुमार था, की सोचने समझने की शक्ति ही नहीं रही थी।
बस भाग कर शादी कर ली , पर जल्दी ही समझ में आ गया , की वो प्यार नहीं था, हमारे रोज़ झगडे होने लगे ।
पैसे भी नहीं थे। कोई काम नहीं था। वो 18 , मैं 17 साल। मेरी खुद की नासमझी कह लीजिये।
फिर मेरे घरवालों ने कोर्ट में केस करके, नाबालिग लड़की को भगाने का केस किया और डाइवोर्स करवा लिया।
मैं वापस घर आ गयी पर मन ख़राब हो गया था ,
माँ पिताजी की बदनामी भी हुयी। उसके बाद मैंने किसी तरह से ग्रेजुएशन कम्पलीट किया।
और फिर मेरे पिताजी ने एक जगह मेरी शादी कर दी। वहां घर में ,सास , ससुर, देवर और पति थे बस।
एक साल तक सब ठीक रहा , फिर न जाने उन्हें कैसे मेरी पहली शादी की बात पता चल गयी।
और उन लोगो का व्यवहार बदल गया।
एक बार मेरे पति काम के सिलसिले में बाहर गए हुए थे. , और मैं अपनी जुड़वाँ बेटियों के साथ सो रही थी, की तभी मैंने देखा की मेरे देवर मेरे कमरे में हैं
और मेरे साथ जबरदस्ती करने लगे, मैंने अपनी सास को आवाज़ लगाई तो वो बजाये देवर को डांटने के , मुझे ही कहने लगी की जब तक मेरा बड़ा बेटा नहीं आता , ये यही रहेगा।
मुझे समझ नहीं आ रहा था, वो ऐसा मेरे साथ कैसे कर सकती हैं।
मैंने बहुत कोशिश की उनको समझाने की, पर जैसे उन लोगो पर भूत सवार हो।
मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया , दो दिन तक दरवाजा नहीं खोला, ना ही पानी पिया न खाना खाया।
जब पति वापस आये तो उन्हें मैंने सारी बात बताई , पर उनके ऊपर भी कोई असर नहीं हुआ।
उल्टा उन्होंने मुझे कहा की जब माँ ने कहा तो ऐसा ही करना चाहिए था।
मुझे विश्वास नहीं हुआ की कोई पति अपनी पत्नी के लिए ऐसे भी सोच सकता है।
कला और रजनी दोनों ही कोकिला के दर्द और उसकी घृणा को समझ रही थी।
फिर ?
कोकिला - उसके बाद तो पति और सास दोनों की ही ये जिद थी की मैं देवर और ससुर दोनों के साथ। ..... कह कर कोकिला रोने लगी।
रजनी ने कोकिला को गले से लगाया और उसके आंसू पोंछे ।
कोकिला बिफरती हुयी बोलने लगी , उस समय मोबाइल नहीं थे, सिर्फ एक लैंड लाइन थी, उसपर भी ताला लगा दिया था। मुझे इस बात के लिए हर समय मजबूर किया जाने लगा। मारते थे सब मिलकर की मैं हाँ कर दू। मैं अपने घर पर भी खबर नहीं भिजवा पा रही थी। फिर एक दिन बच्चियों को डॉक्टर के यहाँ टीका लगाने जाना था। वहां से डॉक्टर की केबिन के रास्ते से में पति और सास की आँख बचाकर निकल भागी। फिर कभी लौटकर नहीं गयी। डाइवोर्स भी आसानी से नहीं हुआ , सिर्फ मेरी चोट के निशान ही मेरा सबूत थे।
उसके बाद मैं खुद अपना बुटीक चलाती हूँ, अकेले रहती हूँ और मेरी बेटियां ही मेरा सहारा हैं अब। बहुत समझदार हैं मेरी बेटियां, बहुत मेहनत से दोनों अपने करियर पर ध्यान देती हैं। उनको मैं यही सिखाती हूँ, एक औरत के लिए स्वावलम्बी होना पहली ज़रुरत है।
सही कह रही थी वो, काश ये सीख उसने पहले समझी होती तो जीवन में इतना दर्द ना सहना पड़ता , पर हम अक्सर कड़वे अनुभवों से ही सीखते हैं।
कोकिला और रजनी अपने अपने गंतव्य पर चली गयीं।
कला जब अपने घर पहुंची तो देखा की माँ और पिताजी दोनों ही उसके आने का इंतज़ार कर रहे थे।
उसका शादी के बारे में फैसला जानने के लिए।
कला ने उन दोनों की तरफ देखते हुए कहा
" मैं अभी शादी नहीं करना चाहती हूँ , आप ना कर दीजिये "
क्यों ?
माँ ने पुछा कला को, लगता है तेरा आज का साक्षात्कार अच्छा नहीं हुआ ?
कला ने हँसते हुए कहा , आज का मेरा साक्षात्कार विशेष है, ज़िन्दगी से साक्षात्कार ..
आज पहली बार मैंने ज़िन्दगी को इतने करीब से देखा और जाना है।
इसलिए ,मेरा यही फैसला है की पहले मैं खुद अपना एक मुक़ाम हासिल करुँगी फिर ही शादी करुँगी।
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 हैप्पी न्यू ईयर 



जय अपने 7 साल के बेटे रोहन के साथ सत अन्थोनी स्कूल मैं प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर बैठा था। आज एडमिशन की फॉर्मलिटीज पूरी हो जाए तो एक दो दिन मैं ऑफिस ज्वाइन कर सकेगा। पिछले हफ्ते ही उसका तबादला पुणे से बम्बई हुआ था। किराए का घर ढूंढना , सारी व्यवस्था करना , और रोहन का नए स्कूल में एडमिशन करवाना , मानो किसी जंग के सामान लग रहा था उसे । यूँ तो उसका बेटा होशियार है और तीसरी कक्षा मैं पढ़ाई का बोझ इतना भी नहीं था,कि एक महीने का सिलेबस कवर न कर सके , फिर भी प्रिंसिपल कन्फर्म कर दे तो जान मैं जान आये। 
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बेचैनी मैं इधर उधर टहल रहा था कि प्रिंसिपल ऑफिस के बाहर बोर्ड पर स्कूल के बच्चों द्वारा बनायीं हुयी चित्रकारी की तस्वीरों में से एक पर उसकी नज़र ठहर गयी। जाने क्यों वो चित्र उसे ऐसा लगा की जैसे कहीं देखा हो। समुन्दर के पानी पर कागज़ की नाव पर बिगुल बजाती चिड़िया। जिसने भी बनाया था चित्र बहुत खूबसूरती से बनाया था। उसी तरह के कई बच्चों के बनाये हुए और भी चित्र लगे थे बोर्ड पर , और थंब टैग से चिपके हुए थे। 
दिमाग की उधेड़ बुन के बावजूद चिड़िया वाला चित्र उसे परस्पर अपनी और खींच रहा था। 
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तभी प्रिंसिपल मैडम बाहर आयीं और उनके साथ एक टीचर। प्रिंसिपल उन टीचर को निर्देश दे रहीं थी की पुराने चित्र हटा कर, .इस बार की चित्रकला प्रतियोगिता के नए चित्र लगा दे। और साथ ही जय को भी अंदर आने का इशारा किया। इतने से छोटे बच्चे का भी 2 बार इंटरव्यू। पहली बार लिखित टेस्ट लिया था, इस बार उसकी हाज़िर जवाबी और दिमागी स्फूर्ति की परीक्षा हो रही थी। जवाब रोहन दे रहा था, पसीने जय के छूट रहे थे। अगर प्रिंसिपल ने हरी झंडी नहीं दिखाई तो फिर से नए स्कूल के चक्कर लगाना पड़ेगा। आधे घंटे की माथा पच्ची के बाद , प्रिंसिपल ने मुस्कुराते हुए कहा
" ओके, रोहन , सो नाउ यू कैन ज्वाइन अवर स्कूल , कम ऑन टाइम टुमारो " 
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जय को भी फीस भरने, किताबे, यूनिफार्म, बैग आदि की पूरी लिस्ट थमा दी गयी। धन्यवाद कह कर जल्दी से बाहर आया। तब तक ड्राइंग टीचर ने पुरानी तस्वीरें हटा कर नए चित्रों से बोर्ड को सजा दिया था। पुराने चित्र ज़मीन पर हवा से फड़फड़ा रहे थे। शायद रोहन को भी चिड़िया वाला चित्र अच्छा लगा था, तभी उसने झुक कर वो चित्र उठा लिया , और टीचर की तरफ देखने लगा , अनुमति के इंतज़ार मैं। टीचर ने भी हंस कर चित्र लेने की अनुमति दे दी। फिर जय से नए एडमिशन लिए बच्चे के बारे में जानकारी ली , और एक महीने की छूटी पढाई को पूरी करवाने के लिए होम टूशन का आमंत्रण भी दे दिया। अभी से टूशन , अभी तो तीसरी कक्षा में ही तो है रोहन। 
" जी। जरूरत होगी तो मैं आपको जरूर काल करूँगा मैडम " कह कर वहां से निकल लिया। 
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घर पहुँच कर जय सबसे पहले फीस और बाकी सब चीज़ों का हिसाब लगाने लगा। रोहन नए घर की खिड़की से कॉलोनी के बच्चों को खेलता देख रहा था। 
तभी जय की माँ सब्ज़ी का बैग ले कर बाजार से आयी। उनको देख कर जय उठा " अरे माँ, आप क्यों गयी बाज़ार , मैं ही ले आता " 
पारुल , जय की माँ " इतनी भी बूढी नहीं हुयी हूँ अभी कि छोटे मोटे बाज़ार के काम भी न कर सकूँ , तू ये बता की रोहन का एडमिशन हो गया कि नहीं " 
हाँ माँ , हो गया बस कल फीस भरनी है और किताबे, यूनिफार्म वगैरह लानी है , कल से रोहन स्कूल जाएगा और मैं ऑफिस "
" चलो सब ठीक से हो ही गया, वर्ना में डर ही रही थी, कि अचानक तबादले से मुश्किल ना हो " 
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जय , जो की वाटर फ़िल्टर बनाने की कम्पनी मैं सेल्स मैनेजर था पुणे ब्रांच मैं , प्रमोशन मिलने के बाद , अब बॉम्बे ब्रांच मैं मार्केटिंग हेड के रूप मैं आया था। प्रमोशन की ख़ुशी भी थी, पर सारी व्यवस्था नए सिरे से करने की परेशानी के साथ साथ नए खुले ब्रांच के ऑफिस को संभालने की जिम्मेदारी भी। 
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शाम को रोहन चिड़िया वाले चित्र को अपने कमरे की दीवार पर टेप से लगाने की कोशिश कर रहा था। जय ने चित्र चिपका कर उसे लेकर बेड पर सोने गया। जय , रोहन को थपकी दे कर सुला रहा था , और नज़र मैं चिड़िया वाला चित्र आ रहा था। तभी उसे अचानक याद आया। एक कार्ड उसके सबसे प्रिये सुशांत भैया ने भेजा था, कुछ दस- ग्यारह साल पहले । सुशांत भैया ,उसके चाचा जी के बेटे जो कि अमरीका मैं रहते हैं , और जिन्होंने उसे अपने सगे भाई से बढ़कर प्यार दिया है । जो उसके प्रेरणा सूत्र रहे हैं, हर परिस्तिथि मैं। उनके द्वारा भेजे गए उस कार्ड मैं भी कुछ ऐसा ही चित्र था। बहुत संभाल कर रखा था उसने वह कार्ड , तब कॉलेज का ज़माना था , ना जाने कहाँ गया वह कार्ड ?
क्या किसी ने उसी कार्ड से ये चित्र बनाया है ? क्या सोच रहा है वह भी, ऐसा चित्र तो कोई भी बना सकता है। पलंग से उठ कर वह फिर से उस चित्र के पास गया, उस पर कोने मैं नाम लिखा था " मोनिका शर्मा " फोर्थ बी, 15 अगस्त 2016 . दो साल पहले बनाया था उस बच्ची ने वह चित्र । दुबारा पलंग पर लेट कर सोचने लगा , कि क्या उसको पूछना चाहिए उस बच्ची से , " वह चित्र उसने कैसे बनाया ? "
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दूसरे दिन सुबह जय ने रोहन के स्कूल में पहुंचकर उसकी फीस भरी और उसको क्लास मैं छोड़कर, प्रिंसिपल ऑफिस के पास से गुज़र रहा था कि ड्राइंग वाली मिस सामने से आती हुयी दिखी। उनको देखकर वह जल्दी से बचकर निकल जाना चाहता था, पर मिस हवा की तेजी से उसके पास आ गयीं।
"नमस्ते सर , आपका बेटा स्कूल जॉइन कर लिया, आप फ़िक्र न करे मैं उसका ध्यान रखूंगी, वैसे कौन से सेक्शन मैं है ? "
जय मन में सोच रहा, ये अपने टूशन के लिए रास्ता बना रही हैं। "जी हाँ, रोहन ने आज से स्कूल जॉइन कर लिया , वह कक्षा 3 -A में है। क्या आप सभी क्लास मैं ड्राइंग सिखाती हैं ? '' जय ने उनसे पूछा।
"हां जी मैं कक्षा फर्स्ट से सिक्स्थ तक की क्लासेज मैं ड्राइंग सिखाती हूँ, नर्सरी और सीनियर क्लासेज की टीचर्स अलग हैं। मेरा नाम आभा है , और ये मेरा फ़ोन नंबर है, आपको जब भी ज़रुरत हो मुझे बता दीजियेगा।"
जय उसको देखकर सोच रहा था कि एक ही दिन मैं सारे दाँव - पेंच आजमाना चाहती हैं ये। अब जब ये खुद ही बात कर रही है, तो वह भी कुछ पूछ ले । अच्छा मिस आभा , एक बात बताइये, कल जो आपने चित्रे मेरे बेटे को दिया था, वो चिड़िया वाला, वह भी आपने सिखाया था क्या ?

"यहाँ बच्चों को चित्रकारी मैं ही सिखाती हूँ , कल जो भी चित्र बोर्ड से हटाए थे, सब बच्चों को वापस कर दिए, यही हमारा रूल है। ये चित्र दरअसल बच्चों ने १५ अगस्त की प्रतियोगिता मैं बनाये थे। जिन बच्चों के चित्र प्रथम आते है, उन्हें पुरस्कार मिलते हैं और हर क्लास के तीन सबसे बढ़िया चित्र यहाँ वॉर्ड पर लगाए जाते हैं। पर जो चित्र आपको दिया था, वह चित्र किस बच्चे का था ? "

जय ने याद करते हुए कहा ," पूरा नाम तो याद नहीं, पर शायद फोर्थ क्लास की किसी लड़की मोनिका का था। "
मोनिका ? इस नाम की तो कोई लड़की नहीं है फोर्थ मैं, मिस आभा ने कहा
अरे , जी नहीं , जय ने कहा- "वह चित्र दो साल पुराना था, २०१६ का , उस हिसाब से वह बच्ची अब सिक्स्थ मैं होनी चाहिए। "
मिस आभा ने सोचते हुए कहा ," ध्यान तो नहीं आ रहा मुझे , पर मैं बाद में देख कर बताउंगी , लेकिन आप उस बच्ची के बारे मैं क्यों जानना चाहते हैं ? "

वाकई सही पूछा मिस आभा ने, वो उस बच्ची के बारे मैं इतना जानने के लिए क्यों उत्सुक है ? इसलिए कि वैसा कार्ड उसको सुशांत भैया ने भेजा था, जो कि उससे कहीं खो गया था। खुद ही सवाल जवाब करने मैं उसे ध्यान ही नहीं रहा कि मिस आभा अभी भी खड़ी उसको घूर रहीं थी। अपने प्रश्न को घुमाते हुए, जबरदस्ती मिस आभा की तारीफ करते हुए उसने कहा... बस ऐसे ही मैडम, बहुत लाजवाब चित्र बनाया था बच्ची ने, आप वाकई बहुत अच्छी टीचर हैं, आपके ही प्रोत्साहन से बच्चे इतनी अच्छी चित्रकारी करते हैं। मिस आभा तो जैसे फूल के कुप्पा , बहुत बहुत धन्यवाद आपका सर,मुझे ख़ुशी हुयी ये जानकार कि आपको भी चित्रकारी मैं इतना इंटरेस्ट है , अभी मेरी क्लास का टाइम हो रहा है, आप मुझे बताइयेगा रोहन की पढाई के लिए आपको जो भी जरूरत होगी, मैं जरूर सहायता करुँगी ।
जी मिस आभा, जरूर बताऊंगा , ऐसा कह कर जय भी अपने ऑफिस के लिए भागने लगा, पहले ही दिन लेट वह भी नहीं होना चाहता था।

ऑफिस का काम ख़तम होते होते रात के आठ बज गए। घर पहुँच कर देखा तो रोहन सारी कॉपिया - किताबे फैलाये दुखी बैठा था। इसको क्या हुआ, जय ने माँ के हाथ से पानी का गिलास लेते हुए पूछा ?
माँ , जो कि ऊपर से शांत दिख रही थी, पर अंदर से रोहन से भी जयादा दुखी या गुस्से मैं बोली " इतना सा बच्चा इतना सारा होमवर्क दो- तीन दिन मैं कैसे पूरा करेगा , टीचर्स ने दूसरे बच्चों की कॉपी दे कर कहा है की दो दिन मैं वापस करनी है, दो दिन मैं एक महीने के नोट्स कैसे कॉपी करेगा , तुम्हे उसकी बिलकुल भी परवाह नहीं है, ना तो सुधा से बात करते हो, कोई तो हल होगा इन सारी परेशानियों का "
जय जो खुद भी थका हुआ था , खीज कर बोला " हज़ार बार कहा है सुधा का नाम मेरे सामने मत लिया करो, और रोहन के सामने तो बिलकुल भी नहीं , उसे जाना था वो चली गयी, दो साल का था रोहन जब वह गयी थी , पांच साल में बस उसके जन्मदिन पर गिफ्ट भिजवा देती है। रोहन को बुखार हो, या स्कूल , या कुछ और भी, सभी मैं ही करता हूं ना , हो सकता है कभी कभार देर हो जाती हो, पर बता दो मुझे, कोई भी एक काम जो मैंने नहीं किया हो। तुम ये टॉपिक उठा देती हूँ, रोहन अब बड़ा हो रहा है, वह भी फिर मुझसे दस सवाल पूछता है, उसके सवालों के मेरे पास कोई जवाब नहीं होते "

माँ, जो उसकी खीज और दुःख को भी समझती थी, और परेशानियों को भी , फिर से बोली , " इसीलिए तो कहती हूँ, अब तो तुम भी बम्बई आ गए हो, और वह भी यहीं नौकरी करती है, बात करके देखना, शायद वह वापस आ जाए। " माँ को आज भी आस है, कि उनकी बहु सुधा जो कि अपनी नौकरी और बम्बई की लाइफ स्टाइल नहीं छोड़ना चाहती थी , इसलिए पुणे से वापस बम्बई आ गयी थी। पैसे की उसे कोई कमी नहीं थी, खुद भी नौकरी करती है , इंटीरियर डिज़ाइनर है। लोगो के घर बनाती है, पर अपना तोड़ कर चली गयी। पर शायद अब उसे अपने बेटे से मिलने कि चाहत हो, और उसे अपनी गलती का भी एहसास हो।

जय ने माँ को समझाया " हम दादर मैं रहते हैं, वह अँधेरी , हमारे ऑफिस के रास्ते भी अलग है और ज़िन्दगी के भी , रही रोहन की पढाई की बात, मैं अभी सारी कॉपियों की ज़ेरोक्स करवा कर ला देता हूँ ,बच्चों की कॉपी ये कल ही वापस कर देगा, फिर हम धीरे धीरे मिल कर सारे नोट्स कॉपी कर लेंगे।
माँ ने कहा " नोट्स तो हम कॉपी कर लेंगे, पर जो उसने समझा ही नहीं वह चैप्टर सिर्फ रट कर याद करेगा क्या ? "
जय ने गुस्से से कहा " हद है माँ , पीछे ही पड़ जाती हो, सुधा नहीं आएगी वापस , ये मेरा भी फैसला है। पढाई के लिए इसकी ड्राइंग टीचर टूशन की कह रही थी , उनको कह दूंगा,वह पीछे वाली सोसाइटी मैं ही रहती हैं। या तो तुम रोहन को उनके घर छोड़ आना, या वह इसको आ कर यहां घर पर पढ़ा देंगी। कल दिन में बात करता हूँ उनसे । अभी मैं इसकी सारी कॉपियों की ज़ेरोक्स करवा कर ला देता हूँ ''

ज़ेरॉक्स करवा कर, रोहन का बैग लगाया, खाना खाया, साढ़े दस बजे तक रोहन थक कर सो गया। पर जय को इतनी थकान के बावजूद नींद नहीं आ रही थी।
सुधा , उसके पुणे ऑफिस के कलीग की कजिन थी। जान पहचान की वजह से उसको ऑफिस के इंटीरियर के लिए बुलाया गया था , तभी उसकी पहचान उससे हुयी थी, उसके स्टाइल पर जय फ़िदा हो गया था। खूबसूरत, शोख, हंसमुख, चंचल , स्मार्ट , तेज - तर्रार , बम्बई की लड़की। वह ही क्या, ऑफिस के स्टाफ मैं शायद ही कोई होगा जो उसके ऊपर लट्टू न हुआ हो। पर पता नहीं सुधा को शायद उसमे ही कुछ ख़ास नज़र आया था। या शायद उसकी ही किस्मत खराब थी।

जितने दिन ऑफिस का इंटीरियर चला, उतने ही दिन उनका रोमांस। कितने सपने देखे थे, कितने खुश थे जय के मम्मी पापा। जय सोनावने , वह लोग मराठी। सुधा खन्ना, वह पंजाबी। पर पापा ने उसकी ख़ुशी के लिए जात बिरादरी की भी परवाह नहीं की थी।

शायद सुधा पर भी उस वक्त प्यार का बुखार चढ़ा हुआ था , जो शादी के बाद धीरे धीरे उतरने लगा था। शुरू मैं तो वह फ़ोन पर ही अपने ऑफिस के काम करती थी, और कभी कभी साइट विजिट पर जाती थी। फिर धीरे धीरे उसके साइट विजिट बढ़ने लगे और अक्सर वह बम्बई में ही अपने पापा के घर रुकने लगी। और प्रेगनेंसी के बाद उसने ये जिद शुरू कर दी थी, की अब उसे ट्रेवलिंग मैं मुश्किल होती है इसलिए जय भी बम्बई शिफ्ट हो जाए , उसके साथ, उसके पापा के घर मैं । एकलौती बेटी थी, पूरा साम्राज्य उसका था वहां।

पर जय, वह कैसे छोड़ देता अपने माँ बाप को, उसकी भी तो नौकरी थी। पूरे प्रेगनेंसी टाइम सुधा बम्बई ही रही। रोहन के होने के बाद , जब वह वापस पुणे आयी, तो कुछ माँ के समझाने और कुछ छोटे बच्चे की ममता थोड़े दिन उसे बांधे रही। पर उसकी साइट विजिट वैसे ही चलती रही। और फिर एक दिन वह फिर से चली गयी। उसके लिए उसका कर्रिएर घर परिवार से जयादा महत्वपूर्ण था। दो साल का था रोहन तब, कितनी मुश्किल से संभाला था , माँ, पापा, और उसने। शुरू शुरू मैं पूछती थी सुधा उसके और रोहन के बारे मैं, पर हर बार वही जिद, तुम ही बम्बई आ जाओ। धीरे धीरे वह अपनी लाइफ मैं और ज्यादा व्यस्त हो गयी और जय रोहन की परवरिश और पापा की बीमारी मैं। रोहन चार साल का हुआ था, तब पापा को दिल का दौरा पड़ा था, बस तब , सुधा शोक प्रकट करने आयी थी। तीन साल हो गए उस बात को जब उसने आखिरी बार सुधा को देखा था । अब वह खुद भी बम्बई आ चुका है, पर इसका मतलब ये तो नहीं,की सुधा की हर बात उसे मंजूर हो।

ना जाने किस्मत आगे कौन सी करवट लेने वाली है। सरदर्द की गोली खा कर ही सोना पड़ेगा अब। दिल और दिमाग दोनों ही बहुत भारी लग रहे थे उसे।
दूसरे दिन जय ने फिर से सोचा और आख़िरकार मिस आभा को रेसेस टाइम में कॉल कर ही लिया। मिस आभा तो तत्पर बैठीं थी, तुरंत ही जय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। यहाँ तक की जय की माँ को रोहन को लेकर आने जाने की तकलीफ ना उठानी पड़े, इसलिए वह खुद ही घर आकर पढ़ाने के लिए तैयार हो गयीं। उसके बाद जय ने माँ को फ़ोन करके सूचना दी कि शाम 6 बजे से 7 बजे तक मिस आभा रोहन को पढ़ाने आएँगी। इसलिए आज से ही रोहन को नीचे पार्क मैं खेलने के बाद 6 बजे तक वापस घर ले आएं। रोहन की पढाई का मसला सुलझा कर जय फिर से काम मैं लग गया। 8 बजे घर पहुंचा तो माँ और रोहन दोनों ही खुश थे, माँ मिस आभा की वाक् पटुता के प्रभाव मैं पूरी तरह आ चुकी थी। 
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पंद्रह दिन मैं ही मिस आभा ने रोहन का पिछड़ा हुआ सारा होमवर्क भी करवा दिया। और उसको हर शनिवार चित्रकारी भी सिखाने लगी। ड्रॉइंग्स देख कर उसे फिर से रोहन के कमरे मैं लगा हुआ चिडया वाला चित्र याद आ गया। शनिवार को ही जय की मुलाकात मिस आभा से होती थी, क्यूंकि उस दिन वह 7 बजे तक घर आ जाता था , और फिर रोहन को बाहर घुमाना , या आइस क्रीम खिला कर लाना तय था।
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ऐसे ही एक शनिवार को उसने मिस आभा से फिर से पुछा " मैडम वो चिड़िया वाला चित्र बनाने वाली लड़की मोनिका का कुछ पता चला। " 
" जय जी , ऐसा है कि ,जहाँ तक मुझे याद है , 2016 में 15 अगस्त के दिन जो कम्पटीशन हुआ था , उसमे और भी कई स्कूल के बच्चों ने पार्टिसिपेट किया था, तो शायद वह बच्ची किसी और स्कूल की होगी। " इससे ज्यादा जानकारी देने मैं असमर्थता जताते हुए मिस आभा ने जवाब दिया। 
पहली बार जय को मिस आभा से बात करते देख जय की माँ के दिमाग मैं नए कीड़े बलबनुलाने लगे 
मिस आभा के जाते ही , रोहन को जल्दी से कॉपी किताबे रख कर आने को भेजा और फिर उसके जाते ही बोली , 
" मिस आभा बहुत अच्छी लड़की है, रोहन का भी कितना ध्यान रखती है , अगर तुझे सुधा के साथ नहीं रहना, तो उसको डाइवोर्स दे दे और काम ख़तम कर " 
..
जय हतप्रभ रह गया , माँ के दिमाग मैं क्या क्या चलता रहता है, पूरा आशय समझ में आ गया था उसको माँ की बातों से " माँ, वह सिर्फ रोहन की टीचर हैं, आप अपने दिमाग मैं कोई भी ऐसे फ़ालतू के विचार मत लाओ "
"अरे, लेकिन क्या सारी ज़िन्दगी यूँ ही सुधा का इंतज़ार करता रहेगा " माँ ने कहा।
"मैंने कब कहा कि मैं उसका इंतज़ार कर रहा हूँ , पर डाइवोर्स ले कर भी क्या हासिल होना है , आपको लगता है वह इतनी आसानी से डाइवोर्स देगी " जय ने आशंकित से स्वर मैं कहा। 
माँ कहाँ हार माने वाली थी " कोशिश करने मैं क्या हर्ज़ है " 
इतने मैं रोहन आ गया और वह बाहर जा कर आइसक्रीम और पाओ भाजी का आनंद लेने लगे।
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जय ने सोचा बात ख़तम हो गयी। पर माँ ना कुछ भूलती हैं ना ही किसी बात को अधूरा छोड़ने मैं विश्वास रखती हैं। जो ठान ले, उसे करने मैं जुट जाती है। रोहन को रोज़ शाम को वह सोसाइटी के गार्डन मैं झूला झुलाने ले जाती थी। वहां मिलने वाली औरतों से बातों बातों मैं आस पास के रहने वालो के बारे मैं ना सिर्फ पता कर लिया। बल्कि एक दिन रोहन के स्कूल और जय के ऑफिस जाने के बाद,एक वकील साब के घर पर ही बने ऑफिस मैं पहुँच गयी और पूरी कहानी उनके सामने रख दी। वकील साब , अपने पेशे के अनुसार माँ को पूरा आश्वासन दे दिया की वह जल्दी ही डाइवोर्स दिलवा कर उनके बेटे का पिंड उस नकचढ़ी बहु से छुड़वा देंगे। 
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अगले ही रविवार को माँ जय से झूठ बोल कर कि एक सज्जन ने उन्हें चाय पर बुलाया है , बोल कर ले गयी। जानती थी जय इतनी आसानी से नहीं जाएगा। वकील के बारे मैं जानकार जय को मन ही मन बहुत गुस्सा आया, पर कोई तमाशा ना बने यह सोचकर उनसे बात चीत करता रहा। पर घर आते ही माँ के सामने उबल पड़ा " माँ, तुम समझती नहीं हो, इतनी मुश्किल से ज़िन्दगी व्यवस्थित हुयी है, तुम उसमे भूचाल ला दोगी । " 
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पर माँ टस से मस नहीं हुयी और दृढ़ शब्दों मैं बोली " कुछ नहीं होगा , मैं हूँ ना " 
"माँ, ये शाहरुख़ खान का डायलाग बंद करो, नयी मुसीबत को झेलने के लिए तैयार रहो, असल ज़िन्दगी मैं और फिल्मो मैं बहुत अंतर होता है " जय फिर से उखड़े स्वर में बोला। 
" हाँ, जैसे, मैंने तो ज़िन्दगी देखी ही नहीं है जय " माँ अभी भी अडी हुईं थी।
" कोई फायदा है बहस करने से ," कहकर जय अपने रूम में चला गया।
वकील ने जल्दि ही नोटिस भेज दिया सुधा के घर , और जैसा की जय को आशंका थी , सुधा के वकील का जवाब आया कि , डाइवोर्स ऐसे नहीं मिलेगा, उनको पांच लाख अलीमोनी चाहिए और रोहन की कस्टडी भी , क्यूंकि सुधा उसकी माँ है। 
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" देखो मैंने कहा था, उसकी पैसे की भूख कभी खतम नहीं होगी, और अब ये रोहन की कस्टडी। रोहन को मैंने पाला है, वह उसे कभी नहीं मिलेगा " आज जय को सच मैं बहुत चिंता हो रही थी , देश का कानून भी औरतों के हक़ मैं जाता है, कहीं रोहन उससे बिछड़ ना जाए। 
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माँ जय को समझाते हुए बोली " सब ठीक होगा सब्र तो कर " 
कोर्ट से सुधा को रोहन से मिलने की अनुमति मिली तो जय और भी परेशान हो गया, अब रोहन को क्या क्या समझाए की सुधा उसकी माँ है, वह क्यों साथ नहीं रहती, वगैरह वगैरह। 
जय ने माँ को हिदायत दी, " सुधा कभी भी मिलने आये, उससे गार्डन में ही रोहन को मिलवा कर लाना, सुधा घर नहीं आनी चाहिए। " इस बार जय ने वाकई सख्त लहजे मैं माँ से कहा। 
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महीने मैं एक बार सुधा को रोहन से मिलने के लिए अनुमति मिली थी। वकील अपने केस को पुख्ता बनाने के लिए अक्सर जय और माँ का दिमाग खाने आ जाता था। उसी बिल्डिंग के पहले माले पर ही उसका ऑफिस कम रेजिडेंस था। पडोसी के नाते फुर्सत के समय रविवार को वह बातों बातों मैं सारे छुपे राज़ उगलवा रहा था। 
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जय का घर 5 th फ्लोर पर था। वैसे तो लिफ्ट थी,पर कभी कभी लोड शेडिंग हो जाती थी, तब माँ को सीढ़ियां चढ़ने मैं परेशानी होती थी, उस दिन रोहन को पार्क में लाना ले जाना भी मुश्किल हो जाता था। मिस आभा के आने तक माँ को घर भी वापस आना होता था। पर धीरे धीरे पड़ोस के लोगो से मेल जॉल बढ़ने से कसी न किसी की मदद भी मिल जाती थी। उनके फ्लोर पर चार फ्लैट थे, सब परिवार के लोग ही थे। बस एक फ्लैट मैं एक अकेली लड़की रहती थी , जो न कभी ज्यादा बात करती थी, ना किसी से ख़ास मतलब। पर शाम को लिफ्ट मैं घर वापस आते हुए वह अक्सर पारुल ( जय की माँ ) को दिख जाती थी। एक दिन लिफ्ट ख़राब थी, पारुल को सीढ़ियों से सब्जी का बैग और रोहन को लेकर आना पड़ रहा था , कि तभी मिस आभा भी आ गयीं। 
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" अरे आंटी आप क्यों सब्जी लाती हैं, मैं ही ला दिया करुँगी, मेरे बिल्डिंग और आपकी बिल्डिंग के बीच में ही तो सब्ज़ी वाले की दूकान है. मैं तो रोज़ शाम को आती ही हूँ, आप बस मुझे बता दिया कीजिये, मैं अपने साथ में ही ले आया करुँगी " मिस आभा अपनी पूरी कोशिश कर रही थीं , माँ को इम्प्रेस करने मैं। 
अब तक उनको भी रोहन, जय, सुधा, और उनके घर के छुपे हुए हालातों का थोड़ा बहुत अंदाजा होने लगा था। और वह इस हाथ आये मौके को जाने नहीं देना चाहती थीं। 
देखने मैं कोई हूर की परी नहीं थी मिस आभा, पर फिर भी सलीके से साडी पहन कर अपनी बढ़ती हुयी उम्र को छुपा लेने मैं पूरी तरह सक्षम थी। 30 की उम्र तो जरूर होगी, नाक थोड़ी मोटी है तो क्या, रंग तो साफ़ है , बाल भी अच्छे हैं, घने काले , 2 -4 सफ़ेद बाल तो आजकल सबके होते हैं, डाई करके लहराती है तो कहाँ पता चलता है। खुद पर ही इतराने लगी थी मिस आभा आजकल। 
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अगले हफ्ते जय को ऑफिस के काम से दो दिन के लिए पुणे जाना था। शनिवार को जाना था , रविवार बीच मैं और सोमवार 12 बजे तक वापस। शुक्रवार से ही पारुल की तबियत कुछ ठीक नहीं थी, पर जय से कुछ नहीं कहा , चुपचाप क्रोसिन ले ली , ये सोच कर की ठीक हो जाएगा। शनिवार , को बुखार भी नहीं था, उन्हें ठीक भी लगा, मिस आभा भी आयीं, उनका और रोहन का भी मन बहल गया। पर रविवार को फिर से बुखार चढ़ गया, और इस बार बहुत तेज , जैसे उनके पैरो मैं जान ही ना रही हो। जैसे तैसे रोहन को खिचड़ी बना कर खिलाई। जय से भी कुछ नहीं कहा, बिना बात ही परेशान हो जाएगा, फिर से एक और क्रोसिन ले ली , पर बुखार था कि उतर ही नहीं रहा था। शाम को रोहन गार्डन मैं खेलने की ज़िद कर रहा था, पर कैसे ले जाए ? 
तब उन्हें सामने रहने वाली उस पतली , कम बोलने वाली लड़की का ख्याल आया। और रोहन के साथ उसके घर की घंटी बजा दी। 
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" नीलिमा शर्मा " नेम प्लेट पर पूरा नाम पढ़ लिया था आज पारुल ने। नीलिमा जो कि संडे को अलसाई सी टीवी देखने मैं मशगूल थी अचानक हुए इस डिस्टर्बेंस से जरा भी खुश नहीं थी। दरवाजे पर पारुल और रोहन को देखकर उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखा ?
पारुल ने नीलिमा को कहा की क्या वह कुछ देर के लिए रोहन को नीचे ले जा कर सिर्फ आइस क्रीम दिलवा कर ला सकती है। नीलिमा को नीचे जाने का बिलकुल मन नहीं था। 
पारुल ने फिर कहा " मुझे बुखार है, नहीं तो मैं ले जाती, यह बहुत रो रहा है " 
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पारुल के कातर स्वर को सुनकर वह थोड़ा पिघल गयी और रोहन को लेकर नीचे चली गयी। तब तक पारुल घर पर आकर सोफे पर बैठ गयी थी। नीलिमा जब रोहन को ले कर वापस आयी और दरवाजे की घंटी बजायी। पारुल के पैर लड़खड़ा रहे थे, और दरवाजा खोलने में ही जैसे गिरते गिरते बचीं। 
नीलिमा ने उनको संभाला और सोफे पर लिटा दिया "अरे आपको तो बहुत तेज बुखार है ? आपके घर पर और कोई नहीं है ? नीलिमा ने इधर उधर उनके घर मैं नज़र दौड़ाई। 
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कांपते स्वर में पारुल ने जवाब दिया " मेरा बेटा जय दो दिन के लिए पुणे गया है, अभी बस मैं और रोहन ही हैं " 
नीलिमा उनको ज्यादा जानती भी नहीं थी , क्या करे ? 
पर फिर उसने अपने मोबाइल से खुद के फॅमिली डॉक्टर को कॉल किया और उनको आने के लिए कहा। 
पारुल को नीलिमा पर भरोसा तो नहीं था, पर सोच रही थी, कभी ना कभी इसने " पडोसी का कर्तवय " नामक निबंध जरूर पढ़ा होगा। 
डॉक्टर ने आकर वायरल फीवर की पुष्टि की , और दवाइयां बता दी, साथ ही कोई उनके पास रहे, ये भी कहा। 
नीलिमा को लगा जैसे कौन सी नयी मुसीबत आ गयी, उसके सर पर। मरती क्या न करती वाला सवाल था। 
आखिर उसे ही रुकना पड़ा वहां, पर इस वादे के साथ, की वह सिर्फ रात भर रुकेगी, सुबह उसे ऑफिस जाना होता है। 
पारुल भी मान गयीं, सुबह तक तो दवाई से वह ठीक भी हो जाएंगी और 12 बजे तक तो जय भी आ जाएगा। 
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नीलिमा ने कहा की वह अपने घर से दाल चावल लाती है। पर पारुल ने कहा की यहीं बना लें। नीलिमा ने खाना बना कर दोनों को खिलाया और खुद खाया। आज दो अनजान पडोसी साथ में थे। पहली बार इतनी बात हो रही थी पारुल और नीलिमा की। 
नीलिमा ने अपने बारे मैं बताया कि उसके माँ पापा , जब वह 9th में थी तब ही कार एक्सीडेंट मैं डेथ हो गयी थी। उससे बड़े, उसके भाई थे, और सबसे बड़ी दीदी। पापा की डेथ के बाद भाई हॉस्टल में रहने चला गया। और नीलिमा अपनी बड़ी दीदी के घर पुणे। वहां से ही फिर उसने 10th से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढाई की। 
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पुणे का नाम सुनकर पारुल को भी उसमे इंटरेस्ट आने लगा था " कौन से कॉलिज से पढ़ी हो तुम ? " 
नीलिमा ने बताया की " सिम्बायोसिस से "
" अरे मेरा बेटा जय भी सिम्बायोसिस का पढ़ा हुआ है , उसने सन 2006 मैं ग्रेजुएशन किया था, तब तो तुम जरूर जानती होंगी उसे । " ये तो अच्छा संयोग हुआ सोच रही थी पारुल।
"नहीं ऑन्टी , मैं नहीं जानती , मैंने तो 2007 मैं कॉलेज ज्वाइन किया था , वह मेरे सीनियर रहे होंगे। " नीलिमा ने पारुल के संयोग पर पानी फेर दिया था।
"अच्छा फिर तुम बम्बई कैसे आयीं ? " फिर से पुछा पारुल ने।
नीलिमा ने आगे बताया कि , उसकी दीदी ऑस्ट्रेलिया चली गयीं, तब तक भैया की भी शादी हो गयी थी , इसलिए वह भैया भाभी के पास आ गयी।
" लेकिन यहाँ तो तुम अकेली रहती हो ? " कौतहुल से पुछा पारुल ने।
थोड़ा अचकचाते हुए नीलिमा ने कहा " हाँ, कुछ दिन भैया भाभी के साथ रही फिर सबको प्राइवेसी चाहिए होती है, इसलिए मैं अलग फ्लैट लेकर रहने लगी हूँ " अब अपने घर की हर बात नयी नयी पहचान हुयी पड़ोसिन को कैसे बताये।
" तुमने शादी क्यों नहीं की है ? " पारुल को आश्चर्य हुआ। पतली , लम्बी है, थोड़ी सांवली है, पर हंसती है तो प्यारी लगती है।
" बस ऐसे ही, जरूरी तो नहीं कि शादी की ही जाए " इसी टॉपिक पर तो अक्सर नीलिमा की भैया भाभी से बहस हो जाया करती थी। पर नीलिमा , जब तक उसको समझने वाला उसके जैसा जीवन साथी ना मिले, वह शादी नहीं करना चाहती थी। ना ही उसके लिए कोई परेशान हो, या उसे बोझ समझे , ऐसा भी नहीं चाहती थी। इसलिए ही वह अलग रहने लगी थी। जीओ और जीने दो वाला सिद्धांत था उसका।
" काम क्या करती हो ? " पारुल के सवाल ने उसे ख्यालों से बाहर ला दिया।
" HDFC बैंक मैं जॉब करती हूँ " संछिप्त सा उत्तर दे कर बात ख़तम कर दी उसने और फिर कहा 
" ऑन्टी अब आप सो जाइये " , और उसे दवाई दे कर, और रोहन को भी पारुल के साथ ही रूम मैं सुला दिया 
और खुद बाहर सोफे पर सो गयी। बहुत कहा पारुल ने रूम में सो जाए, पर नीलिमा ने उनकी बात नहीं मानी और सोफे पर ही सो गयी।
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सुबह रोहन की तो स्कूल की छुट्टी करवा दी पारुल ने। नीलिमा सुबह की दवाई दे कर अपने घर चली गयी, उसे बैंक जो जाना था। जय जब घर आया तो बहुत नाराज़ हुआ पारुल पर की उन्होंने उसे फ़ोन नहीं किया ना बताया। 
शाम को मिस आभा भी नाराज़ थी, इतना सुनहरा मौका उसके हाथ से चला गया था। पर रोहन ने उसको खुश कर दिया यह कह कर की नेक्स्ट मंथ 15 नवम्बर को उसका बर्थडे है। मिस आभा के मन में लड्डू फूट रहे थे। ये चांस वह बिलकुल नहीं गँवायेगी। 
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जय ने पारुल को कहा कि रोहन का बर्थडे बिलकुल सादा ही मनाएंगे, सिर्फ बिल्डिंग के बच्चे। और घर में भी कुछ बनाने की ज़रुरत नहीं , वह बाज़ार से केक ,समोसे, वेफर्स वगैरह ले आएगा। मिस आभा तो बिन बुलाई मेहमान थी ही। माँ ने फिर भी अपनी सेवा का ऋण उतारने के लिए नीलिमा को भी आने को कह दिया।
15 नवम्बर को मिस आभा 4 बजे ही आ गयी। " लाइए ऑन्टी क्या काम करना है "
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" काम तो कुछ नहीं है , चाहो तो थोड़ा डेकोरेशन कर लो। मैं तुम्हारी मदद के लिए नीलिमा को भी बुला लेती हूँ " कह कर पारुल नीलिमा को भी बुला लाइ। 
मिस आभा ने किसी प्रतिद्विंदी की अपेक्षा नहीं की थी पर बुझे मन से डेकोरेशन मैं लग गयीं। 
पारुल ने नीलिमा को रोहन के कमरे से टेप , कैंची और गुब्बारे का पैकेट लाने के लिए कहा , जो की उसके स्टडी टेबल के ड्रावर में था। नीलिमा रोहन के कमरे में पहुंची तो चौंक गयी। 
"समुन्दर पर चिड़िया वाला चित्र यहाँ कैसे ? हाँ, ये तो वही चित्र है, नाम भी लिखा है मोनिका का "...... नीलिमा खुद ही बड़बड़ा रही थी। 
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बाहर तब तक जय भी आ गया था , और सुधा का ड्राइवर भी गिफ्ट ले कर आया था। पर इस बार सुधा भी आयी थी अचानक। उसका इस तरह ऊपर घर में आना जय को पसंद नहीं आया, पर सारे बच्चों और मेहमानो के बीच खामोश रहना पड़ा। सुधा केक काटने तक रुकी और फिर जल्दी जाने लगी । रोहन अब सुधा को पहचानने लगा था , तो उसे जाने से रोक रहा था। नीलिमा चित्र को भूल कर सामने होने वाली गतिविधियों को मौन रह कर समझने की कोशिश कर रही थी। मिस आभा तो सुधा को कच्चा ही चबा जाती। उसकी नज़र में ऐसी माँ के लिए कोई इज़्ज़त नहीं थी। . 
बर्थडे के हंगामे के बाद नीलिमा जब घर पहुंची तो उसे चित्र का ध्यान आया " अरे चित्र के बारे मैं तो पूछना ही भूल गयी , वह चित्र वहां कैसे आया। वह चित्र तो उसके भाई की बेटी मोनिका को उसने एक बार ड्राइंग कम्पटीशन के लिए सिखाया था। भैया भाभी तो उसके घर काम ही आते थे। मोनिका को बुआ के पास मजा आता था, वह छुट्टी मैं अक्सर आ जाती थी उसके पास। या रात को भैया भाभी को जब कभी पार्टी में जाना होता था , तब मोनिका को उसके पास ही छोड़ जाते थे। 

ऐसे ही एक टाइम पर मोनिका ने उससे ड्राइंग कम्पटीशन के लिए चित्र का आईडिया माँगा था, कुछ और उसे नहीं सूझा था, एक कार्ड था उसके पास, उसमे से ही उसने उसको सिखाया था। बहुत पुराना कार्ड था , उस कार्ड की भी एक अलग स्टोरी थी।

कॉलेज की लाइब्रेरी से उसने एकाउंट्स की एक बुक इशू करवाई थी. उस बुक के पन्नो के बीच मैं वह कार्ड उसे मिला था। वह अक्सर सोचती थी, किसकी किताब होगी वह, जिसने कार्ड किताब में ही छोड़ दिया। पता नहीं कौन होगा। अनजाने में ही वह किसी अजनबी के बारे में सोच रही थी। खुद पर हंसी भी आती थी, पर एक अलग सा रोमांच भी लगता था, किसी फेयरी टेल की तरह। पूरे साल की स्टडीज के बाद जब उसने वह किताब लाइब्रेरी में वापस की थी, तब वह कार्ड उसने अपने ही पास रख लिया था। कार्ड के पीछे उस लड़के का नाम भी लिखा था। जो उसे अब याद नहीं आ रहा था।

वह कार्ड अभी भी होगा कहीं ? कार्ड को ढूंढने मैं नीलिमा ने अपनी शेल्फ के सारे कागज़ ऊपर नीचे कर डाले, और अंत मैं पुराने पेपर्स और कार्ड्स के बीच में दबा वह कार्ड उसको मिल गया। 
कार्ड के पीछे पलटा तो उसकी हैरानी की सीमा नहीं रही 
कार्ड पर लिखा था
" Dear Jay ,
Best Wishes from your brother
Sushant "

जय , यही नाम तो रोहन के पापा का भी है, तो क्या ये कार्ड उनका ही है। कमाल हो गया ये तो।
आज वह फिर से वही कॉलेज वाला रोमांच महसूस कर रही थी। उत्सुकता मैं उसे नींद भी नहीं आ रही थी।
सुबह सबसे पहले उठ कर जैसे ही नीलिमा ने जय के दरवाजे की घंटी बजाई , दूधवाला समझ कर जय ने ही दरवाजा खोला था। 

" आपके लिए एक सरप्राइज है, कह कर नीलिमा हंसने लगी " उसकी आँखें अजीब सी ख़ुशी से चमक रही थी।
जय भी हैरान था ,इसे क्या हुआ, सुबह सुबह।

जी क्या है सरप्राइज ? जय ने पुछा।

नीलिमा ने न्यू ईयर वाला वह कार्ड जय के सामने कर दिया।

कार्ड को देख कर जय भी ख़ुशी से हतप्रभ हो गया, " यह कार्ड आपके पास, ये तो मैं कब से ढूंढ रहा था , पर आपके पास कैसे ? "
तब तक पारुल भी उठ कर आ गयी थी, उन्होंने नीलिमा को अंदर बुलाया। और सबके लिए चाय बनाई। 
अब सोफे पर बैठ कर जय और नीलिमा फिल इन द ब्लैंक्स भर रहे थे। ...
कि कैसे जय ने किताब मैं कार्ड छोड़ दिया था और कैसे वह कार्ड किताब से नीलिमा को मिला... 
और कैसे स्कूल के बोर्ड से जय को वह चित्र मिला और कैसे वह चित्र बनाने वाले को ढूंढ रहा था।
दोनों एक ही कॉलेज के पढ़े हुए थे...सिम्बोसिस के, जय ने जब कॉलिज छोड़ दिया था, तब नीलिमा ने ज्वाइन किया था। पर वह कार्ड उन दोनों के बीच की कड़ी बन गया था।
दोनों हंस हंस कर लोट पॉट हो रहे थे। 

पारुल के चेहरे पर संतोष और चैन की ख़ुशी थी , आज बरसो बाद पारुल ने जय के चेहरे पर वही मासूमियत और हंसी देखी थी। खुशियों ने उनके दरवाजे पर फिर से दस्तक दी थी। हैप्पी न्यू ईयर का कार्ड उनके लिए नयी सौगात लाने वाला है।



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