Friday, November 16, 2007

ख़ामोशी के बाद



समेट लेते हैं जो खुद को ,
ज़रा से फैलाव  के बाद ;
डर , कि बह न जाएँ ये मोती
फिर किसी सैलाब के साथ

मोम हो जाती है शम्मा -
रात भर जलने के बाद ;
कि  ,हम भी पिघलते रहे
उसकी तन्हाइयों के साथ

फ़ना हो जाते जो ख्वाब
नींद से जगने के बाद ;
वो , रात भर कुछ इस तरह
उलझाने, डसने के बाद

सहमी  खड़ी ये आरज़ू हैं
तेरी उसी , बेरुखी के बाद ;
कि , थमी हुयी सी धड़कने
अब तेरे रहगुज़र के साथ

लफ्ज़ बेज़ुबान  हैं फिर
उस नीम सी  ख़ामोशी के बाद ;
कि , गूँजते सन्नाटे हो जैसे ,
मौत की सरगोशियों के बाद 



Meanings
        फ़ना - destroy
       आरज़ू - desires


    रहगुज़र - depart
      लफ्ज़ - words   
  बेज़ुबान - speechless
 सरगोशियों  - whispering
               ( silent activities)



Tuesday, August 7, 2007

पैदा होने का सबब ?



dedicted to all those new born babies left for dying ....
नाज़ुक सी देह लिए 
घूरे पे पड़ी

दूध की मिठास
से बेखबर
खून के कतरे चखती

जिस कोख से जन्मी
उसकी ही ठोकर खाती

आँचल की छाँव
से महरूम
कांटो मैं कसमसाती

जनम लेने के गुनाह
और सजा को झेलती

ज़िन्दगी के अनकहे किस्से

 से अनजान
दर्द से कराहती 


मौला से पूछती
पैदा होने का सबब ?

Monday, May 28, 2007

चाँद की मंजूरी


खामोश सीली सी रात में 
खुमारी का आलम था
पीली छत पर छुई -मुई सी लड़की थी
बगल के रोशनदान से झांकता ;
सुरमई सा लड़का था
नज़रों का मिल- मिल कर उठना था , फिर झुकना था

उखड़ी सासें थी
बेताब दिल थे
बेख़ौफ़ धड़कने थी
मचलते अरमान थे

शरारत सूझी चाँद के मन में ,
और छिप गया बादलों  की ओट में
हॉल कर घबराती लड़की थी
इख्तियार से तसल्ली देता लड़का था
हिज़ाब में चेहरा  छुपाती लड़की थी
ख्वाबों को तस्लीम देता लड़का था

कुछ कसमें थी
कुछ मुरादें थी
बरसों के साथ की अनकही तहरीरें थी
खुदा के करम से एक होती तक़दीरें थी 


कुदरत के इस फरमान को चाँद ने
अपनी भी मंजूरी दे दी 

Sunday, May 27, 2007

तुम मानो या ना मानो


तुम चाहो या ना  चाहो
तुम्हारी राहों मैं खड़े
हम मुस्कुराते थे
तुम नज़रें झुकाते थे
शर्माते थे ,
घबराते थे। ...

तुम मानो  या ना  मानो
जो दिल्लगी थी हमारी
वो दिल की लगी है
एक बेचैन प्यास है
आरज़ू है ,
इंतज़ार है ....

तुम जानो या ना जानो
तुम्हारी जुदाई के ख्याल से
होश गुम  है
सासें रुकी  हैं
दीवानगी है ,
बेकसी है ......

तुम समझो या ना समझो 
हमारे बीच अब जो फासले हैं 
वो किस्मत की बात है 
जब इज़हार -ए -मोहब्बत करनी थी 
कभी तुम नहीं  थे ,
और कभी हम नहीं थे .....


साईकिल सी मैं और पहिये सी ज़िन्दगी


साईकिल सी मैं और पहिये सी ज़िन्दगी
मौसम -ए -सरगोशियों से बेजार
ठोकरों में गिरती - संभलती
रास्ते के पत्थरों को
दरकिनार कर रुख मोड़ती
आगे निकलती
साईकिल सी मैं और पहिये सी ज़िन्दगी .......

ख़ल्क़ -ए -कसीदे की खलिश से
फुसफुसाती हुयी आहें
जिगर में ठंडी  सांस भर
जख्मो पर पैबंद लगा, मुस्कुराती
तफरीह करती
साईकिल सी मैं और पहिये सी ज़िन्दगी ........

रिश्ता -ए -फ़िराक़ से बदरंग
टूटे तानो - बानो को  समेटती -जोड़ती
मन की खरोचों पर
उम्मीदों का रंग चढ़ा
जद्दोजहद करती
साईकिल सी मैं और पहिये सी ज़िन्दगी ........




Meanings
-----------------
मौसम -ए -सरगोशियों- changes of seasons
बेजार - unaffected
दरकिनार- to remove aside
ख़ल्क़ -ए -कसीदे - sarcasm of people
खलिश - irritation
जख्मो- wound
पैबंद- patch
तफरीह- enjoying / strolling
रिश्ता -ए -फ़िराक़ - distance in relation
बदरंग  - discoloured
जद्दोजहद- struggling


जलता है खुदा मेरे यार से


उंडेलता  रहा पानी
भिगोने के लिए ,
मैं सूखा खड़ा ;
मेरे यार के इश्क़ के छींटो  ने
पूरा भिगो दिया ........
जलता है खुदा मेरे यार से

खिलाता 
 रहा गुल गुलिस्तां के लिए ,
मैं मुरझाया रहा ;
मेरे यार के होठों की खिलती कलियों ने
मौसम बदल दिया ........

जलता है खुदा मेरे यार से 

चलाता रहा लू तपाने के लिए ,
मैं ठंडा पड़ा ;
मेरे यार की साँसों की गर्मी ने
जिस्म पिघला दिया .........

जलता है खुदा मेरे यार से 

Thursday, May 24, 2007

ज़िन्दगी


कल कमरे की सफाई से 
एक तस्वीर मिली पुरानी सी 
कुछ गर्द  झाड़ कर हाथों से 
टांग दी दीवार पर 
रौनक सी बढ़ी कमरे की 
और साथ ही........ 
कुछ रद्दो - बदल कर यूँही 
गुज़रती रही ज़िन्दगी हौले धीरे 

पुरानी किताब के पन्नो मैं दबी 
गुलाब की पत्तियां सूखी सी 
कुछ पानी डाल कर प्याले में 
सजा दी तिपाई पर 
खुशबु सी उडी कमरे में 
और साथ ही........ 
कुछ रद्दो - बदल कर यूँही 
गुज़रती रही ज़िन्दगी हौले धीरे 

कोने में पड़े साज़ के तारों को छेड़ कर 
एक लहर उठी धीमी सी 
कुछ बीते अफ़सानो की 
यादें दोहरा कर 
धुन सी छिड़ी कमरे में 
और साथ ही........ 
कुछ रद्दो - बदल कर यूँही 
गुज़रती रही ज़िन्दगी हौले धीरे 

बचपन ,जवानी और बुढ़ापा



अहम् की   देहलीज पर 
दम  तोड़ता बचपन 
अपने ही नीड में 
दौड़ने की होड़ से 

वक्त की मार झेलती 
अधमरी जवानियाँ 
मजबूरियों की जंग में 
ख़्वाबों के बदरंग से 

शून्यता में घूरता 
अपाहिज बुढ़ापा 
अपनों से शिकस्त में 
जीने की त्रस्त  से 


तुम

















मुद्दतों पहले सुनी 

आज भी याद कहानी हो तुम
अधूरी सी...... .. 
हसीन लम्हो की कोई 
छूटी निशानी हो तुम 
सिसकती सी......... 
हर आती जाती सांस की 
रवानी हो तुम 
दिल्लगी सी........