Monday, July 29, 2013

अंत



तुझे  ढूंढती  हुयी  बेताब  नज़र
और अनायास मिलने  की  इक  अधूरी  ख्वाहिश 
हर पल  तेरे  एहसासों  का बढ़ता  काफिला
और  पल पल टूटने  जुड़ने  का लम्बा सिलसिला
धीरे  धीरे खामोश होती  वेदना
और नशे मैं  मदहोश  संवेदना
डूबती  हुयी उस अंतहीन कोहरे मैं
जहाँ  न  दिन  है न रात है
खोया  हुआ  एक पूरा  जहां
समाया हुआ है इसमें कहीं
जिसके  वजूद  के मिटते निशान
बस  दूर तक  फैली  एक  सफ़ेद  चादर
जो  बनेगी  एक  दिन  मेरे  अंत  की सहोदर 

ग्रहण


बहुत  शौक  था  उसे 
ग्रहण   देखने  का 
दिन मैं  रात 
और  रात  मैं दिन 
सब  उलट  फेर हो  जाना 
जो  कोई  ना  करे 
बस वही  है  करना 
 सीधी  राहों  पर 
उलटे  पैरों चलना 
और उलट  गए 
ज़िन्दगी  के   मायने 
पूर्ण  ग्रहण  के 
असीम  अन्धकार  मैं 
चाँद  की  परछाई  को 
अपने  आगोश  मैं लिए 
घेरे  मैं घूमती 
आधी  अधूरी  चाँदनी  

Friday, July 12, 2013

लता




बगिया   से   चौखट  तक फैली  सजीली लता  को 
फिर  उखाड़  कर सौंप दी  माली  ने  दूजे  हाथों मैं 
और विदा हो   गयी  एक  बेटी  ब्याह  कर 
अपनों  से  दूर  किसी  अनजाने  के   संग 


सींचा  था  जिसे  अपने  लहु  की  बूँद  बूँद  से 
ममता  की   छाव्  मैं पली  बढ़ी 
चल दी  एक  नए  परिवेश  मैं 
सकुची  , सहमी ,घबराई 


जिस अंगने  मैं सोलाह सावन बीते 
एक - एक  सेतु से  बंधी  आगे  बढ़ी 
कट गया  अब  हर बंधन 
फिर  से जुड़ने  नए रिश्तों  मैं 

कौन  जाने  रच बस पाएगी 
फिर से  नयी जमीन पर 
दूर  अपनी  मिट्टी  से 
फलेगी - फूलेगी और , या  मुरझा   जायेगी 


पिता की लाडली  , माँ की दुलारी 
आँगन की रौनक  और कुल का  दर्प 
आशीर्वाद  और  सीख के  साथ उठी डोली 
जिम्मेदारी  और सपनो  की कशमकश  लिए 


क्या  जुड़ पायेंगे  फिर से नए सेतु
क्या सर उठा  झूम  उठेगी देख ऊंचे गगन को 
या  धीरे धीरे कुम्हला  जायेगी 
बंजर ज़मीन के सूखे  पत्थरों  मैं 


क्या पूरे होंगे उसके  दुर्लभ स्वप्न 
क्या हर्ष  से महक उठेगी  बगिया  मैं 
या  झूल  जायेगी निष्प्राण  सी 
एक  एक कर झड़ते पीले पत्तों को मूक देखती 

Tuesday, July 2, 2013

यादों की लकीरें



बूढी   हो  चुकी  हूँ  मैं  अब 

हर  कोई  अपनी - अपनी  दिनचर्या 
मैं व्यस्त  और  बदहवास  सा 
भागा    चला   जा   रहा  है   
पर  मुझे  चार  कदम 
चलने  के  लिए  भी 
कोई   बहाना  नहीं  मिलता 
फिर  भी  हर  संध्या  को 
आकर  बैठ  जाती  हूँ 
घर  के सामने  बने 
खाली बागीचे के कोने  मैं  पड़ी 
अकेली  बेंच  पर 
कोई  आता   नहीं  यहाँ  अब 
बच्चों  को  फूल पत्तो से ज्यादा 
मशीनी  उपकरणों  से प्यार है 
युगल  जोड़ों  को  झुरमुट मैं 
सपने  बुनने  से  ज्यादा 
भीड़  मैं खुद  को तलाशने 
की  प्यास  है  


कुछ  देर  आँख  बंद  करते ही 

मन  की  ठेलागाड़ी  पंख  लगा 
पीछे  की ओर  दौड़  पड़ी
सलोने  बचपन  के  अल्हड 
से  किस्से  और  उनमे  छुपी 
खट्टी -  मीठी  यादें 
वो तितलियों के पंखों मैं  सिमटी 
रंगीन  कलाकृतियाँ 
पेड़ों के सायों मैं  छुपना  - छुपाना 
वो सहेलियों  संग बेफिजूल सी बातों
 पर घंटो चहचहाना 
वो  पेड़ों पे पड़ते सावन के झूले 
और हाथों से उडती मेहँदी की  खुशबू 
वो  नानी के किस्से और दादी की झिडकी
आईने  मैं झांकते अपने ही अक्स मैं 
अनायास ही किसी अजनबी के 
साए की जुम्बिश 
वो सिन्दूरी   सपनो से  महकी  सी सासें 
और  पल भर मैं जुड़ते सदियों  के नाते 



सब कुछ  एक तस्वीर  की तरह स्थिर 

जैसे जादू की नगरी के सोते हुए लम्हे 
बस छूने से  सजीव हो उठेंगे 
फिर से  वही खिलखिलाते पल 
पर समय  की काली चादर  तले 
सब  ढँका हुआ  है 
और मैं इस  गर्द भरी मटमैली चादर 
पर उँगलियों से  लकीरें  खींचती 
इस उम्मीद मैं की जाग  उठे 
कोई सोती कहानी 
किसी रेखा मैं उभरकर 
बस चला आ रहा  है ये सिलसिला 
मेरे  और समय के बीच 
मैं हर  रोज़  उकेरती 
गर्द पर यादों की लकीरें 
और हर रोज़ धूमिल करती 
समय की उडती   रेत  उन्हें 


बरसों  से चल   रही   इस  जुगलबंदी 

के साथी मैं और समय  की  गर्द 
पार  हार  कहाँ  मानी  है  हमने 
चलो  कल  फिर  आउंगी  इसी  जगह 
कुछ    नयी  लकीरें  खींचने 
जिनसे  झांकेंगी  यादों   की   परछाईयाँ 
आँखें खोल  कर  बाहर  आई 
अपने अन्दर  की  दुनिया  से 
लौट  पड़ी  फिर समय से
कल आने  का वादा करके 
अपने   उसी  पत्थर के परकोटे मैं 
जिसकी दीवार पर टंगे कैलेंडर मैं 
लिखा है मेरी  चलती साँसों का हिसाब 
या तो  मैं  जीतूंगी  या जीतेगी 
ये समय की  कालिख 
पर उससे  पहले  लिख जाउंगी 
हर याद  की कोई  अमिट कहानी