Wednesday, June 27, 2018

मात - पिता



(माता पिता को समिर्पत उनकी शादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर- )

माता और पिता की जोड़ी 
ईश्वर ने क्या खूब गढ़ी 
.
पिता अगर हैं गगन विशाल
माँ धरती का वृस्तृत भाल
दोनों के संयुक्त करो से
हो शिशुओं का पालनहार
.
पिता हिमालय के शीर्ष शिखर
जिसे देख मन गर्वित हो
देवतुल्य राज इंद्र के जैसे
स्नेह की निस दिन वर्षा हो
.
चट्टान स्वरूपी ह्रदय कोमला
माँ निर्मल सोपान की धारा
हो कितनी भी राह विषम
दृढ़ता की जीवंत परिभाषा
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भण्डार ज्ञान का मिला पिता से
माँ से संस्कृति की पहचान
धीरज, संयम मिला पिता से
माँ से शक्ति, स्वाभिमान
.
आकाश पटल को छूने को
विश्वास स्तम्भ दिए पिता ने
डगमग - डगमग पॉँव हुए तो
माँ ने अनुभवी पंख दिए
.
सर पर छत्र पिता का है
तो नरम बिछोना माँ का आँचल
नमन करूँ मैं मात पिता को
वरद हस्त रहे उनका सर पर

आस


हम औरतें अमूमन एक जैसी ही होती है
और हमारी दास्ताने भी कमोबेश मिलती जुलती
हर घर मैं मिल जाएगी एक सीता , एक राधा 

एक अहिल्या या एक झाँसी की रानी
.
वो सीता जो स्वयं को अर्पित करके
ठगी सी खड़ी है ज़िन्दगी की राह मैं
ये सोचती कि कब ,कौन सा निर्णय गलत था
चुप चाप निशब्द अपने भाग्य को कोसती !
.
वो राधा जो प्रेम के समुन्दर को लुटा कर
रीति खड़ी है, सूख चुके आंसुओं की पपड़ी झड़ाती
अपने कृष्ण के ज़िन्दगी के हर मोड़ पर सफल
होने के लिए, बिना पीछे मुड़े आगे बढ़ जाने के बाद !
.
वो अहिल्या जो पाँव की ठोकरे खा कर
बुत खड़ी है, सब कुछ जानते समझते
सिर्फ अपनों की मान मर्यादाओं की खातिर
अपने अस्तित्व पर , धूल की परते चढाती !
.
वो झाँसी की रानी जो जूझ रही है
हर रोज़ ज़िन्दगी के दोहरे मापदंडो के साथ
घर और बाहर के दुगने बोझ संभालते
सबकी कसौटियों की, तलवार के धार तले!
.
पुरुष प्रधान समाज में युगों युगों से
विज्ञानं की तरक्की के बावजूद
ऊपरी साजो सज्जा के आवरण में लिपटी
वही प्राचीन भारतीय नारी !
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टीवी सीरियल के चलने वाले लम्बे
धारावाहिक की कहानी की तरह
एक पात्र के छोड़ जाने के बाद
उसकी जगह लेकर, मुखौटे को लगाए !
.
कहीं अपने वजूद के, जंग लगे ताले की
गुमनामी में चुप चाप चाबी तराशती
कहीं अपनी ख्वाहिशो को पूरी करने की
खातिर बेख़ौफ़ ,खंजरो के वार झेलती !
.
हमे साँसों से ज्यादा हवा की ज़रुरत है !
हम रोटी से ज्यादा समय की भूख है !
हमे तन से ज्यादा मन की प्यास है !
हमे तकनीक से ज्यादा बदलाव की आस है !

जनाजा - ए - अरमान








हमने दर्द को पन्नों पर लहू से सजाया 
लोग वाह वाह करते दाद देते रहे 

दर्द ने हंसी की ओट ले कर  फ़रमाया 
मुबारक हो फनकार तुम्हारे कलम के हुनर को 

बारिश में भिगो कर आंसुओं की लड़ियाँ 
किस शान से निकला है जनाजा - ए - अरमान