Friday, November 30, 2018

मूक ख़ुशी



रात के धुंधलके मैं ,एक वो और एक मैं
तनहा तनहा से गुम अपने अपने ख़यालों मैं
मैं सड़क के इस पार नीम के पेड़ के नीचे 
घर के बाहर पत्थर की काली बेंच पर बैठी
वो सड़क के उस पार लैंप पोस्ट के नीचे
झाड़ियों के पास चुपचाप खड़ा
कभी उसकी नज़र मुझ पर उठती
कभी मेरी निगाह उस तक जाती
एक दूसरे को देखते दो अनजाने
.
शायद उसे इंतज़ार था की मैं उसे बुलाऊँ
मेरा ये अभिप्राय की वो खुद ही आ जाए
मलिन सा मुख लिए आँख बंद कर
थक कर बैठ गया वहीं अपने हाथों मैं
अपना चेहरा समेट कर
उसके खामोश, अनकहे दर्द से उपजी
द्रवित ह्रदय की रिमझिम फुहार
मेरे मानस पटल की आंधी को
पल मैं उड़ा कर ले गयी
.
अचानक मैं दौड़ कर अंदर गयी
और झट से बाहर आयी
मेरी बंद मुठ्ठी को कौतहूल से देखता
आशा भरी नजरे से मुझे निहारता
मैंने जैसे ही उसे देख के मुस्कुराया
वो अपने आप ही दौड़ा दौड़ा आया
प्रेम को शब्दों की जरूरत नहीं होती
मेरे स्नेह के जवाब मैं उसकी मूक ख़ुशी
रोटी खाते हुए, उसकी जोर जोर से हिलती
पूँछ दे रही थी।