Monday, May 5, 2014

प्रेमिल गुलाब



ये लाल सुर्ख गुलाब और उसके किनारों पे चमकते मोती
जैसे नाज़ुक लबों पर अठखेलियां करती ओस की बूँदें 
इन सिमटी हुई पत्तियों पे पानी की मचलती बूंदे
एक दुसरे को आगोश मै लेने को बेताब
पर संकोच से ठिठकी , मँद मँद मुस्काती
कुदरत की हसीं नोक - झोंक है ये
या मासूम सी शरारत है किसी जलधिराज की
.
इन् बूंदों की सरगोशियों से लजाती ये पंखुड़ियां
शर्म से बोझिल सुर्ख लाल हुई जाती हैँ
जलतरंग की ध्वनि से मधुर गान की उत्पत्ति मै
एक एक पंखुरी सहभागी बन लय बद्द हो थिरक उठतीं है
ये प्यार के मधुर स्पर्श की भाषा
मूक हो कर भी अस्फुट से शब्दों में उभर आती है
जैसे हृदय से निकलती हुई चैतन्य की प्रतीभा मै
मुखर हो इठलाती हैं , गुनगुनाती हैं
.
कली से गुलाब तक आकार लेने मै
ये स्पर्श का एहसास है प्रेम कि अनुभुति का
जिसके अनुराग से मदहोश हो कर
जन्म लेती हैं कुदरत की अनमोल कृतियाँ
हर्ष और उल्लास से हिलोरे लेते हुए
प्रकृति के असीम वैभव को बढाती
सुन्दर अप्रतिम मनोभावों को समेटे
प्रेम के प्रतीक के रूप मै उजागर
जग को अनमोल सन्देश देने के लिये
रचित , एक मनमोहक प्रेमिल गुलाब