Thursday, January 17, 2013

सौंधी मिटटी




धूप चमकती है आँगन में 
जो टुकड़ा-टुकड़ा , छन-छन  कर
झाँक लेती हूँ किसी टुकड़े से 
मैं भी 
आड़े-तिरछे पौधों की तरह 
और लिपट जाती हूँ एक ख्याल से 
लरजती हुयी लता की तरह  

हवा थिरकती है पेड़ों में 
जो हौले- हौले , छुप-छुप कर 
झूम लेती हूँ किसी हलचल से 
मैं भी 
टेढ़ी मेढ़ी टहनी की तरह 
और समेत लेती हूँ सूखे पत्ते 
बिखरी हुयी यादों की तरह 


बूंदे पड़ती हैं छजली पर 
जो छम-छम, झर -झर  कर
बह लेती हूँ किसी  झिरी से
मैं भी 
रिसते  -रिसते  पानी की तरह 
और महक उठती है ये सीली देह 
सौंधी हुयी मिटटी की तरह 

Friday, January 11, 2013

मैं वही की वही





कितना बड़ा घर 
कितना सारा साज -ओ -सामान 
पर मेरे लिए एक कोना भी नहीं 
कितना बड़ा घर 
पर पूरा खाली 
अब हर दर- ओ - दीवार सिर्फ मेरे लिए 


कितना बड़ा शहर 
और कितना शोर शराबा 
पर मेरा अपना कोई नहीं 
कितनी खूबसूरत जगह 
पर बिलकुल सुनसान 
अब हर तरफ सिर्फ ख़ामोशी ही ख़ामोशी 


कितने सारे रिश्ते, 
कितनी सारी तू- तू , मैं - मैं 
पर मीठे बोल कोई नहीं 
कितने सारे नाते 
पर  सब दूर 
अब कोई नहीं कुछ कहने या सुनने वाला 


परिस्थिति बदल गयी 
परिवेश बदल गया 
पर समझा किसी ने नहीं 
ज़िन्दगी बदल गयी 
पर अजीब बात है 
अब भी मैं वही की वही 

Sunday, January 6, 2013

पदचिन्ह :



तुम आये और चले  भी गये
पर अपने साथ मुझे भी ले गये
फूलों  से खुशबू  के जैसे
बादल से पानी के जैसे
होठो से मुस्कान के जैसे
आखो से आंसू  के जैसे
दिल से धडकन के जैसे
जिस्म से रूह के जैसे


तुम आये और चले भी गये

पर  अपने पदचिन्ह : यही छोड गये
तन पर  आंचल के जैसे
मन पर साये के जैसे
सीने मैं तस्वीर के जैसे 
होठों मैं फ़रियाद के जैसे
पैरो मै बंधन  के जैसे
माथे पर कुमकुम  के जैसे

जीवन यात्रा


हर  प्राणी इस संसार मै  
एक भिक्षुक की तरह  आता है
हर दर  से वो कुछ ना कुछ
तो अवश्य पाता है
कहीं से ज्ञान तो कहीं से प्रेम 
कहीं  से मुस्कान ,तो कहीं से  वात्सल्य
कहीं से धिक्कार , तो कहीं से  तिरस्कार
कहीं से श्रद्धा  , तो कहीं से  सम्मान 


हर द्वार के आगे से गुजरते  हुए 

सर नवाकर आगे चलता जाता है
हर चीज अपनी - अपनी तरह से 
योगदान भी करती है 
कुछ सीख कर , कुछ सिखा कर 
कुछ पा कर , कुछ खो कर 
कुछ ले कर , कुछ दे कर 
कुछ जीत कर , कुछ हार कर 


बस यही है मानव की जीवन यात्रा 

सब कुछ अपने मैं समाहित करता है 
कर्म करते हुए निरंतर आगे - आगे 
बढकर आदि से अंत  तक पहुंचता  है 
ना  द्वेष , ना  क्लेश 
ना बैर , ना राग 
ना भय , ना विस्मय 
ना किंतु , ना परंतु 


सिर्फ अनंत !


Tuesday, January 1, 2013

याद


 



आज फिर तेरी याद ने दस्तक दी है 
सुकून से मुस्कुराये भी हम हैं 
की तू जहाँ है खुश है 
फिर क्यों इन आँखों से 
ये बूँदें बरसी हैं 
 शायद ये बताने के लिए 
की नमी भी ज़रूरी है 
इस पौधे को हरा रखने के लिए 



आज फिर तेरी याद ने दस्तक दी है 
तेरी तस्वीर से दो बातें भी की हैं 
की तू जहाँ है आबाद है 
फिर क्यों इस दिल में 
ये कम्पन हुयी है 
शायद ये जताने के लिए 
की सासें भी ज़रूरी है 
इस जान को बसा रखने के लिए 


आज फिर तेरी याद ने दस्तक दी है