Saturday, August 29, 2020

बाजार



क्या अजीब दुनिया है 
जहाँ कदम कदम पर 
खरीद फरोख्त का बाजार है 
यहाँ रिश्ते भी बिकते हैं
और ज़मीर भी बिकते है
यहाँ सपने भी बिकते हैं
और ज़ज़्बात भी बिकते हैं
ज़िंदा इंसानो की क्या बात करें जनाब
यहाँ तो मुर्दे भी बिकते हैं
और कब्रिस्तान की धूल भी बिकती है
.
हम प्यार की बाते करते हैं
एक औरत चारदीवारी के भीतर
उँगलियों पर दिन गिनते रह जाती है
और बहार फरेबी अदाओं के एक इशारे पर
आदमी का दिल दिमाग दोनों बिक जाते हैं
एक माँ अपने लाडले की
चीख भी नहीं सुन पाती है
और ख़बरों के बाजार में
मसाला लगा लगा कर
उसकी मौत बिक जाती है
.
ये कैसे भूख है ये कैसी प्यास है
जो सुरसा के मुंह सी बढ़ती चली जाती है
क्या पैसा क्या नाम
क्या शोहरत क्या काम
यहाँ जाहिलों की बस्ती में
कलम बिक जाती है
नंगो की महफ़िलो में
इज़्ज़त की चिलम फूंकते
कामयाबी की कुंजी खरीदने को
अस्मत बिक जाती है
.
क्या न्याय करे भगवान् अब
भोचक्का बड़ा है
उसकी बनायीं दुनिया मैं हर कोई
खुद, भगवान् बना बैठा है
कौन सच्चा और कौन झूठा
कौन अच्छा और कौन बुरा
तराजू की पेंदी में छेद बहुत हैं
फैसला करेगा कौन जब
मुजरिमो के हाथों मैं
इन्साफ बिका बैठा है
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---मंजरी
27th Aug 2020

" नामुकम्मल "



"बहुत खूबियां होंगी मगर 
 मैं अपने ऐबों पर नज़र रखता हूँ 
होंगे कई पसंद करने वाले मगर 
 ठुकरा देने वालों का शुक्रिया अदा करता हूँ " .
.
 लाख खूबसूरत हुआ करे चाँद 
 एक धब्बा उसमे भी है 
 सर झुका चलने के लिए 
 मुकम्मल कुछ नहीं होता 
 कोई कमी बेशी होने दो यारो 
 बेहतर बनाने की गुंजाईश तो है .

कहीं ज़मीन है तो छत टूटी है 
 शुक्र मनाओ आसमान साफ़ है 
 तभी तो सितारों का नज़ारा है 
कहीं मीलों लम्बे रास्ते हैं 
 मंज़िल का नामो निशाँ नहीं है 
 शुक्र मनाओ पाँव आज़ाद तो हैं 

कौन कहता है सबको 
 सब कुछ मिल जाता है 
 कोई न कोई कमी से 
 हर दामन खाली नज़र आता है
 हो सके तो जला दो एक चिराग 
 मन का अँधेरा बहुत सालता है . 

ना जाने कौन अपना है कौन पराया 
 ये रिश्तों की गांठों मैं उलझने से बेहतर 
 चलने दो सबको साथ साथ 
 जीवन है तो काफिले हैं 
 वरना मौत के साथ तो एक दिन 
 अकेले ही चले जाना है 

 ----- Manjri .../ 13th July 2020

Saturday, May 23, 2020

अटल जिजीविषा


खिल जाते हैं गुलशाद पत्थरो में भी 
कुछ बीजों को तूफ़ान ही सैर कराते हैं 
दब कर किसी खंदक के पसीजे दिल में 
बे इरादन ही अंकुर पनप जाते हैं
अजीब करिश्मा है कुदरत का
प्रचंड सूरज की अग्नि से जहाँ
सारी वनस्पति मुंह लटका लेती हैं
ये ढीठ जाने कैसे आयुष पाते हैं
बवंडर के आवेश में हिचकोले खाते
लम्बे चौड़े दरख़्त भी धराशायी हो जाते हैं
पर बिना किसी ठौर -सहारे के भी
ये निर्लज ऐसे में भी मुस्काते हैं
हिल नहीं पाती है इनकी अटल जिजीविषा
नख शिख तक पानी मैं डूब डूब कर
नाग फनी उठा फिर तन जाते हैं
काँटों की खलिश से रक्त रंजित
अपने ही लहू से निखर जाते हैं
इनका कोई क्या बिगाड़ेगा
ये तो पैरो तले रुंद कर भी
एक से हज़ार हो जाते हैं