Wednesday, December 5, 2012

अलबेली


कभी सुनी हो फ़िज़ाओं से जैसे 
कहीं छुपी हो घटाओं में जैसे  
कोई अनकही , कहानी हो जैसे

कभी उड़ती तितली के जैसे
कहीं थिरकती मोरनी के जैसे 
कोई राग रागिनी हो जैसे

कभी  चमकते जुगनू के जैसे
कहीं  तेज़ लपट के जैसे 
कोई भड़की चिंगारी हो जैसे 

कभी सुबह की किरण के जैसे 
कभी तारों की टिम -टिम  के जैसे 
कोई जलता बुझता  चिराग हो जैसे    


कभी पत्तों पे ओस के जैसे 
कहीं सीप में मोती के  जैसे 
कोई बनती बिगड़ती तक़दीर हो जैसे 

कभी बहती हवा के जैसे 
कहीं झरनो की कल-कल के  जैसे 
कोई चंचल धारा हो जैसे 


कभी खुली किताब के जैसे 
कहीं किसी की याद में जैसे 
कोई धुंधली निशानी हो जैसे 


कभी गणित के सवाल के जैसे 
कभी बच्चों के जवाब के जैसे 
कोई अबूझ  पहेली हो जैसे 


कभी अकेली फिरकी के जैसे 
किसी की पक्की सहेली के जैसे 
कोई पगली सायानी अलबेली हो जैसे 


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