Thursday, January 17, 2013

सौंधी मिटटी




धूप चमकती है आँगन में 
जो टुकड़ा-टुकड़ा , छन-छन  कर
झाँक लेती हूँ किसी टुकड़े से 
मैं भी 
आड़े-तिरछे पौधों की तरह 
और लिपट जाती हूँ एक ख्याल से 
लरजती हुयी लता की तरह  

हवा थिरकती है पेड़ों में 
जो हौले- हौले , छुप-छुप कर 
झूम लेती हूँ किसी हलचल से 
मैं भी 
टेढ़ी मेढ़ी टहनी की तरह 
और समेत लेती हूँ सूखे पत्ते 
बिखरी हुयी यादों की तरह 


बूंदे पड़ती हैं छजली पर 
जो छम-छम, झर -झर  कर
बह लेती हूँ किसी  झिरी से
मैं भी 
रिसते  -रिसते  पानी की तरह 
और महक उठती है ये सीली देह 
सौंधी हुयी मिटटी की तरह 

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