Saturday, December 15, 2018

टूटे पत्ते की सार्थकता


अलग हो चुके कोई पत्ता जब
किसी डाली से टूट कर 
नहीं जुड़ सकता फिर दुबारा
किसी शाख या किसी दरख़्त पर
उड़ता फिरता है बदहवास,कभी
बिना किसी ठौर-ठिकाने के
हवा के थपेड़ो संग ,बेजान
किसी भी सूरत -ए - हाल
कराह उठता है कभी कुचल कर
उन्ही पैरों तले रुंद कर
जिनके सर कभी छत्र बना था
सूरज पर सीना तान
समय का चक्र भी गज़ब अनोखा
कब ठहरा है वह एक समान
जो ऊपर है वो नीचे होगा
कर निचले वाले का उत्थान
सृष्टि का जो नियम बना है
कौन उसके जा सके विपरीत
नहीं व्यर्थ यहाँ है कुछ भी
सूखे पत्ते का तब, क्या है काम ?
ढूंढने होंगे फिर नए आयाम
सूखे पत्ते को अपने लिए
कोई उपयोगिता, कोई रूपांतरण
जो सार्थक करे, शेष जीवनकाल
क्या बिछ कर धरा पर रोक ले ?
उसके कलेजे की नमी
ना सूख पाएगी धरती की छाती
प्रचंड सूरज की तपिश से
या बन जाए सतह, बिंध कर
एक नए नीड़ की नींव में
किसी पंछी के बसेरे को
थाम कर अपने आगोश मैं
और कुछ नहीं, तो हो रेशा -रेशा
खाद बन, मिल जाए माटी मैं
जिसमे से रूप बदलकर फिर फूटेगी
एक नयी कोपल, नवजीवन के साथ !!

No comments: