Tuesday, October 4, 2016

हाशिया


चलते चलते ज़िन्दगी के रास्तों में
अनगिनत लोग मिलते जाते हैं
कुछ बीच सफर में छूट जाते हैं 
कुछ हमसे आगे निकल जाते हैं
कुछ ठिठक कर पीछे रह जाते हैं
किसी से आगे बढ़ने की होड़ में
हम भागते हैं , गिरते हैं सँभलते हैं
तो किसी के साथ आने की ललक में
बार बार पीछे मुड़ कर देखते हैं
कभी हाथ बढ़ाते हैं तो कभी
रुक कर इंतज़ार करते हैं
आज बरसों के इस सफर के बाद
अपने साथ चलते इस कारवां को
देख कर ये खयाल आया
की क्यों न हाशिये पे रख के ज़िन्दगी को
फिर से संवारा जाए
वो कौन हैं जो मेरे निकटतम दायरे में हैं
और वो कौन हैं जो
आड़े तिरछे तरीके से अंजानो की तरह
बस जुड़े हैं कुछ कटे - कटे से
फिर से समझा जाए रिश्तों को
एक नयी परिभाषा के साथ
और खींचा जाए मन का दायरा
और दायरे के अंदर
मेरे अपने
.
हाशिया =  Margin / Border )

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