Sunday, April 8, 2018

आइना












थिरकती रहती थी यूँही अल्हड बेपरवाह सी 
इधर से उधर कूदती फांदती 
वो नए नए यौवन की देहलीज पे कदम रखती 
कि टोकने लगा अक्सर वो आइना 
कैसे रहती हो लाडो 
ज़रा तो ढंग से रहा करो 
कभी तो निहार लो अपने प्रतिरूप को
.
सीखने लगी वो बुद्धू लड़की ढंग नए ज़माने के 
सजना- संवरना, इठलाना - शर्माना 
पंखुडिया अकुला रही थी कली के दिल की 
कि खुद डाह से जल गया आइना 
उसके प्रतिबिम्ब के स्पर्श से 
और रूठ के कर डाली प्रकृति से 
कोई शिकायत उसके खिलाफ 
.
ना जाने कहाँ से आया ऐसा झंझावात 
जिसने छीन लिए एक एक कर सब 
इतने जतन से सीखे नए अंदाज़ 
कि धूमिल कर सारे रंग 
बदरंग अक्स की हंसी उडाता 
मुख फेर लिया आईने ने 
अपनी विजय के दम्भ में हो कर चूर

.
उदास प्रतिकृति को घमंडी आईने से दूर ले जा 
उतार फेंके वो सारे ऊपरी रख रखाव
बे ज़रुरत से असबाब 
कि निखार दिया उसका स्वरुप 
हटा नकली आवरण और हाव भाव 
हंस कर कह दिया , जा आईने !
अब ज़रुरत नहीं मुझे भी तेरी

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