Tuesday, January 1, 2019

नया साल


ये साल जाएगा और नया साल आएगा
पर सच कहो तो भला क्या बदल जाएगा ?
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एक तरफ कड़ाके की ठण्ड मैं सिकुड़्ता
छेद वाले पैबंद लगे झीने कुर्ते से
हड्डियों के ढाँचे को बमुश्किल ढंकता
सड़क के किनारे बर्फीली हवा से
जलते बुझते अलाव के धुंए में
आँखें मिचमिचाता, दाँत किटकिटाता
कैलेंडर में तारीखें बदलने से अनजान
कुत्ते को सिरहाने बना ,गुड़मुड़ी गठरी बना
एक दूसरे के बदन को गर्मी देते
फुटपाथ पर , दो मुफ़लिस
जान बचाते, रात गुज़ारते
क्या ये अलाव सुबह होने तक
इनका साथ दे पायेगा ?
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दूसरी तरफ हाथों में हाथ डाले
आला दर्जे के होटलों और रिसॉर्ट्स में
तेज म्यूजिक पर थिरकते
एक दुसरे से अनजान एक रात के साझेदार
शराब के फव्वारे में नहाते
नाना प्रकार के व्यंजनों के ढेरो पर
नुक्ताचीनी कसते ,चख चख कर फेंकते
नए साल के आगमन का जश्न मनाते
और बची हुयी जूठन को
रसोईघर के पिछवाड़े से उठाकर
गपागप ठूंसते भिखमंगे बच्चे
क्या ऐसा खाना उन्हें हर रोज़
नसीब हो पायेगा ?
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और तीसरी तरफ, देश की सीमा पर
माइनस तीस डिग्री के टेम्प्रेचर को
दरकिनार रख, सभी अपनों से दूर
हम सबकी हिफाज़त के लिए
रोज़ दर रोज़, अपनी जान की
परवाह किये बिना
गुमनामी के अंधेरों से जूझते
ग़म और ख़ुशी की सौगात से परे
रात भर आँखें फाड़े चौकस
मुस्तैदी से पेहरादरी करते
देश के बहादुर सिपाही
क्या उनको इन कुर्बानियों का
सिला मिल पायेगा ?
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मंजरी

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